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________________ तृतीयसर्गः टिप्पणी-यहाँ मल्लि० के अनुसार स्पर्षा न करने के कारण के होते हुए भी स्पर्धा न करना कार्य नहीं हो रहा है, अतः विशेषोक्ति है, किन्तु विद्याधर अतिशयोक्ति मान रहे हैं। यहाँ स्मर की अनङ्गता ( शरीरामाव ) और है तथा नल की अनङ्गता ( कृशाङ्गता ) और है / वेदों का कवि ने अभेदाध्यवसाय कर दिया है। शम्दालंकार वृत्त्यनुप्रास है / पिछले श्लोक में कवि ने निद्राच्छेद और विषयनिवृत्ति दो कामदशायें एक साथ वर्णन कर दी। वास्तव में निद्राच्छेद के बाद क्रम तनुता का था, विषयनिवृत्ति का नहीं। इस श्लोक में कवि विषयनिवृत्ति से मुड़कर फिर तनुता में माता हुआ अपनो भूल सुधार गया है / यह भी हो सकता है लाघव की दृष्टि से कवि एक ही श्लोक में दो दशायें बता गया हो। स्वत्प्रापकात् त्रस्यति नैनसोऽपि स्वय्येष दास्येऽपि न लजते यत् / स्मरेण वाणरतितक्ष्य तीक्ष्णेलनः स्वभावोऽपि कियान् किमस्य // 11 // अन्वयः-एष त्वत्-प्रापकात् एनसः अपि यत् न त्रस्यति, त्वयि दास्ये अपि यत् न लज्जते, (तत्) स्मरेण तीक्ष्णः बाणैः अतितक्ष्य अस्य कियान् स्वभावः अपि लूनः किम् ? टीका-एष नलः प्रापयति ददातीति तथोक्तम् तव प्रापकं तस्मात् (10 तत्पु०) एनप्तः पापात ( 'कलुषं वृजिनेनोधमंहः' इत्यमरः ) यत् न त्रस्यति बिभेति त्वां प्राप्तुं किमपि पापं कर्तुमुद्यतोऽस्तीति भावः त्वयि विषये त्वां प्रतीत्यर्थः दास्ये भृत्यत्वे अपि यत् न लज्जते अपनपते त्वद्दास्यं कर्तुमफि. लज्जां नानुमवतीति मावः, तत् स्मरेण कामेन तीक्ष्णः निशितैः बाप्पैः शरैः अतितक्ष्य अतिशयेन शरीरं तनूकृत्येत्यर्थः अस्य नलस्य कियान् स्वल्पः स्वमावः प्रकृतिः अपि खूनः छिन्नः तनूकृतः किम् ? तादृशो धर्मात्मा नलः स्वदेतोः पाप-कर्मयोऽपि व विभति, खदासीभवनादपि न लज्जते इति कामेन तच्छरीर-तनूकरप्पेन सहैव तस्य स्वभावोऽपि किमपि तनूकृत इति भावः / / 110 / / व्याकरण-प्रापक प्र+ आप+वु, वु को अक / एनसः 'भीत्रार्थानां-' 1 / 4 / 25 से पंचमी। दास्यम् दासस्य माव इति दास+प्यञ् / लुन/+क्त, त को न / अनुवाद-यह ( नल ) तुम्हें प्राप्त करा देने वाले पाप से मी जो नहीं डर रहा है, तुम्हारी दासता से मो जो लज्जा नहीं कर रहा है, तो ( इससे मालूम होता है कि ) कामदेव ने अपने तीक्ष्ण बाणों द्वारा इसे अत्यधिक छीलकर इसके स्वमाव को भी कुछ छील दिया है क्या ? // 17 // टिप्पणी-यहाँ जिस 'एनस' की ओर कवि का संकेत है, वह बलात् तुम्हारा अपहरण है जो 'राक्षस-विवाह' के अन्तर्गत है और पाप कहलाता है / यह तो आततायिओं का काम हुआ करता है न कि धर्मशोलों का, इससे नल की धर्मशोलता बदली दीखती है। नल राजा है, प्रभु है अत एव सेव्य है, किन्तु वह दास बनने को भी तय्यार है, जो राजकीय महिला को गिरा देने वाला अपकृत्य है। यह भी स्वभाव में परिवर्तन है। काम-दशाओं में यह सातवीं अर्थात् 'पानाश' है। 'किम्' शब्द उत्प्रेक्षा का वाचक होने से यहाँ उत्प्रेक्षालंकार हैं। 'तक्ष्य' 'तीक्ष्पैः' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। स्मारं ज्वरं घोरमपत्रपिष्णोस्सिद्धागदकारचये चिकित्सौ / निदानमौनादविशद्विशाखा साक्रामिकी तस्य रुजेव लज्जा // 11 //
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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