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________________ तृतीयसर्गः टिप्पणी-यहाँ कवि शन्दान्तर में पूर्वश्लोक की बात दोहरा गया है / यह मी काम की प्रथम अवस्था नयनपीति ही है। नयनप्रीति और निमेष-च्छिदा का चेतनोकरण होने से समासोक्ति है। शब्दालंकार वृत्त्यनुप्राप्त है। त्वं हृद्गता भैमि बहिर्गतापि प्राणायिता नासिकयास्य गत्या। न चित्तमाक्रामति तत्र चित्रमेतन्मनो यद्भवदेकवृत्ति // 05 // अन्वयः-हे भैमि ! बहिः गता अपि हृद्-गता त्वम् कया गत्या अस्य प्राणायिता न अप्ति 1 ( अथ च नासिकपा, भास्यगत्या प्रापयिता असि ) / मवदेक-वृत्ति एतन्मनः यत् चित्रम् आक्रामति, तत्र न चित्रम् / टीका-हे भैमि ! मोमपुत्रि ! दमयन्तीत्यर्थः बहिः बाह्यदेशे गता स्थिता ( सुप्सुपेति समासः) अपि हृदि हृदये गता अन्तः स्थिता ( स० तत्पु० ) अनुरागवशात् हृदये धारितेत्यर्थः अतएव विरोधपरिहारः, त्वम् कया गत्या केन प्रकारेण अस्य नलम्य प्राणायिता प्राणा इवाचरिता प्राप्प-समेत्यर्थः नासि ? अपि तु सर्वथापि गत्या प्राणायिते ति काकुः, प्राणा अपि नासिकया प्रायद्वारा आस्यस्य मुखस्य गत्या मार्गेण ( 10 तपु० ) च द्वादशाङ्गुल-पर्यन्तं बहिर्गता अपि पुनरन्तर्गच्छन्ति / भवतो खम् एव एका केवला वृत्तिः जीवनोपायः ( सर्वत्र कर्मधा० ) यस्य तथाभूतम् (ब० वी० ) एतस्य नलस्य मनश्चित्तम् ( 10 तत्पु० ) यत् चित्रम् स्वदीयम् आलेख्यम् भाक्रामति व्याप्नोति सततभवहोकयतीति यावत् तत्र तस्मिन् विषये चित्रम् आश्चर्य न अस्तीति शेषः। त्वद्-गत-मना नलस्त्वच्चित्रमेव विलोकयतीत्यत्र नास्त्याश्चर्यस्यावकाश इति भावः // 105 // व्याकरण-भैमी मोमस्यापत्यं स्त्रीति मीम+अण+की। प्राखायिता प्रापा इवाचरतीति प्राण+क्य+क्तः ( कर्तरि ) / भवदेकवृत्ति-सर्वनाम होने से भवती को वृत्तिमात्र में पुंवद्भाव / अनुवाद-हे भैमी, बाहर रहती हुई भी हृदय में स्थित हो तुम किस तरह उस ( नल ) के प्राणों-जैसी नहीं हो ? प्राण मी तो नासिका ( नाक ) और आस्य ( मुख) मार्ग द्वारा ( बारह अंगुल तक ) बाहर गये हुए भी फिर भीतर चले जाते हैं। एकमात्र केवल तुम पर ही आसक्त हुए इस ( नल ) के मन पर तुम्हारा चित्र ही छाया हुआ रहता है, तो इसमें आश्चर्य नहीं // 105 / / टिप्पणी-यहां दमयन्ती पर नल के प्राणों की तुलना करने से उपमालंकार है जो श्लेषानुप्राणित है / 'वहिर्गतापि हृद्गता' में विरोध है, क्योंकि जो बाहर है, वह भीतर कैसे ? उसका परिहार 'शारीरिक रूप में बाहर होती हुई मो अनुरागवश भावना-रूप में अन्तःस्थ है' अर्थ करके हो जाता है / प्राणों का भी यही हाल है। इसलिए इसे हम विरोधामास और उपमा का संकर कहेंगे। शब्दालंकारों में 'चित्र' 'चित्र' में यमक, 'गता' 'गता' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इस श्लोक में कवि ने काम की दूसरी अवस्था चित्तासङ्ग बताई है, जो प्रियतम और प्रियतमा के मनों के परस्पर लगाव से बनती है। बहुत से टीकाकार 'न चित्रं' के स्थान में 'न चित्तं' पाठ दे रहे हैं / उस अवस्था में चित्त को कर्ता मान करके इस तरह अन्वय कीजिए-तत्र नलस्य त्वत्पाषायितत्वे लोकानां चित्तम् चित्रम् आश्चर्य नाकामति न प्राप्नोति यत् यतः एतन्मनो मवदेकवृत्ति अस्ति।
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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