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________________ तृतीयसर्गः अनुवाद-यदि पिताजी देहमात्र शेष रही मुझे नल से मिन्न को देते हैं, तो वे अग्नि में ही मेरा होम क्यों नहीं कर देते ? यद्यपि उनका निश्चय ही पुत्री के शरीर पर अधिकार है, तथापि मेरे पाषों के स्वामी तो नल ही हैं / / 71 / / - टिप्पणी-विद्याधर यहाँ काठयलिग मान रहे हैं / 'तनू' 'तनोः' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तदेकदासीत्वपदादुदग्रे मदीप्सिते साधु विधिरसुता ते / अहेलिना किं नलिनो विधत्त सुधाकरेणापि सुधाकरेण // 80 // अन्धयः-तदेकदासीत्व-पदात् उदग्रे मदीप्सिते ते विधित्सुना साधु किम् ? नलिनी सुधाकरेष अपि अहेलिना सुधाकरेण किं विधत्ते ? टीका-तस्य नलस्य एक-दासीत्वम् ( 10 नत्पु०) एकं केवलं दासीत्वम् एव पदं स्थानम् (उमयत्र कर्मधा० ) तस्मात् उदग्रे उत्कृष्टे मम ईप्सिते अमोष्टे तत्पत्नीस्वरूपे विषये ( 10 तत्पु०) ते बिघित्सुता चिकोर्षता साधु किम् नेति काकुः / अहन्लस्य दासीत्वमेव कामये, न तु ततोsधिकमिति भावः / नलिनी कमलिनी सुधायाः पायूषस्य आकरेण खन्या आलयेनेति यावत् अपि सत्ता अहेलिना हेलि: सूर्यः तद्भिन्नेन सुधाकरेण चन्द्रमसा कि विधत्ते करोति न किमपीति न काकुः / यथा कमलिन्याः सुधापूणेनापि सूर्यमिन्नेन चन्द्रेण न भवति किमपि प्रयोजनम् , तथैव नलस्य दासीत्वं विहाय नलापेक्षयाधिकगुणवतो राजान्तरस्य महिषीत्वेनापि नास्ति मे प्रयोजनमिति भावः / / 80 / / __ व्याकरण-उदने उत् उद्गतम् अग्रं यस्य तत् (प्रादि ब० वो०)। ईप्सितम् /आप+ सन् +क्तः ( कर्मणि ) / विधिस्सुता विधातुमिच्छुः इति वि+Vधा+सन्+डः, तस्य भावः तत्ता। साधु यह सामान्य में नपुंसक है / अनुवाद-उस ( नल ) के दासीत्व-पद से उत्कृष्ट मेरा भनोरथ सम्पादन करने को तुम्हारी इच्छा कोई अच्छी बात है क्या ? अमृत की खान होते हुए भी चन्द्रमा का कमलिनो को क्या करना है, जो सूर्य से भिन्न है ? / / 80 / / टिप्पणी-यहाँ पूर्वार्ध और उत्तराधं वाक्यां का परस्पर बिम्ब-पतिबिम्ब भाव होने से दृष्टान्तालंकार है। सुधाकर शब्द के दो बार आने से पुनरुक्ति दोष की शंका नहीं होने चाहिए, क्योंकि पहला सुधाकर शब्द सुधायाः प्राकरः अथवा सुधा करेषु किरणेषु यस्य तथाभूतः इस तरह व्युत्पन्न प्रातिपदिक है जबकि दूसरा सुधाकर शब्द चन्द्रमा में रूढ़ शब्द है / शब्दालंकारों में 'सुधाकरे। 'सुधाकरे' में यमक 'लिना' 'लिनी' में छेक और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। तदेकलुब्धे हृदि मेऽस्ति लधु चिन्ता न चिन्तामणिमप्यनय॑म / चित्ते ममैकः सकलत्रिलोकीसारो निधिः पप्रमुखः स एव // 81 // अन्वयः-तदेक-लुब्धे मे हृदि अनध्यम् चिन्तामणिम् अपि लब्धुम् चिन्ता न अस्ति / मम चित्ते सकलत्रिलोकीसारः पद्ममुखः स एव ( सकलत्रिलोकीसारः पद्ममुखः ) निधिः (अस्ति)। टीका-तस्मिन् नले एव एकस्मिन् लुग्धे अभिलाषुके (कर्मधा० ) मे हृदि हृदये अनय॑म् अमूल्यं
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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