SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 122 नैषधीयचरिते अनुवाद-हे शिव की अणिमा-शक्ति का रूपनर भून उदर वाली / ब्रह्मा के लोक में रहने वालों के बीच तुम मुन्न मुर्ख को पक्षी होते हुए भी सबसे पहला सत्यवादी वाणी का यश रखने वाला समझो / 64 // टिपणी-यहाँ भाषा में ओज आ जाने से गौड़ी रीति है। उदर में विवर्तत्वारोप होने से रूक है। 'लोकेश' 'लोकेश' 'मश. 'म' में यमक, 'यच्च' 'प्यच' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुपास है। मध्ये श्रुतीनां प्रतिवेशिनीनां सरस्वती वासवती मुखे नः / हियेव ताभ्यश्चलतीयमद्धा पथान संसर्गगुणेन नद्धा // 65 // अन्वयः-(हे भैमि, ) नः मुखे सरस्वती प्रतिवेशिनो नाम् श्रुतीनाम् मध्ये वासवती ( अस्ति) (तस्मात् ) सत्सङ्ग-गुणेन नद्धा सती ताभ्यः हिया इव इयम् अद्धा-पथात् न चलति / टीका-(हे भैमि, ) नः अस्माकं मुखे वक्त्रे सरस्वती वाणो प्रतिवेशिनानाम् पनिवेश्म नाम् गृह निवटवति नीना मति यावत् अतोनां मध्ये वातत्रतो कृताधिवासा अस्तोति शेषः श्रुतयो ब्रह्म मुखेषु निवसन्ति, वयञ्च ब्रह्मयान-बद्धा इत्यस्माकं वाण्यासाप्तां च परस्सरपति शव मिति भावः, अतएव सता सङ्गः सत्सङ्गः (त. तत्पु.) एत्र / कर्मधा० ) गुणः तेन नद्धा सम्पन्द्रा ( त० तत्पु० ) वेदवाण्यः सत्या: तत्संसर्गाच्चास्माकं वापि मत्या / यथक्तं-'संसर्गमा दाप-गुमा भवन्ति' इति / -सतो ताभ्यः श्रतिभ्यः हिया लज्जयेव इयम् अस्माकं बाणो अद्धा-प्यात् सत्यस्य भागां न च ते न 'विचलिता भवति सत्य-मागें एव चलतोति भावः। अद्वेत्यव्ययम् ( 'सत्ये बद्ध उजना द्वयम्' इत्परः) सुप्मुपेति समामः / / 65 / / / __ व्याकरण-प्रतिवेशिनो प्रतिवेशोऽस्या अस्तोनि प्रतिवेश+इन् ( म पर्याय )+कोप् / सङ्गः Vसज+घञ ( भावे ) / नद्धा Vतह + कः प् / अदापया प्रथिन् शाम को समासान्त अप्रत्यय। अनुवाद-(हे भेमो, ) हमारे मुव को सरस्वतो पड़ोस में रहने वाला वेद-पापियों के बोच रहा करती है, ( अतएव ) सत्सङ्ग के गुप से सम्बद्ध ( प्रभावित ) हुई वह उन ( वेदवाणित ) से लाज वानी हुई-जैसो सत्य मार्ग से विचलित नहीं होतो // 65 // टिपरखो-यहाँ श्रुति-वाणियों ओर हम-त्राणियों का चेतनीकरण कर रखा है, इसलिए उनपर अपस्तृत चेतनव्यवहार समारोप होने से समासाक्ति मोर 'हिये में हाने वालो उत्यक्ष का संकर है। 'वेशि' 'वास' में ( शतयोरमेसात् ) छक, 'मद्वा' 'नद्वा' में पादानगा अन्यानुपास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। पर्यतापत्रसरस्वदतां लङ्कापुरीमपमिलाषि चित्तम् / कुत्रापि चेद्वस्तुनि ते प्रयाति तदप्यवेहि स्वशये शयालु // 6 // अन्वयः-कुत्र अपि वस्तुनि अभिलाषि ते वितम् पर्यमापन पर सहवाम् लकाम् पुरोम्बी अयाति चेत्, तदपि स्वशये शयालु अबेहि /
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy