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________________ तृतीयसर्गः टीका-कुत्र कस्मिन्न पि वस्तुनि पदार्थे अभिलाषि साभिलाषं ते तव चित्तम् मनः पर्यवस्व मनस्या भावः पर्यकृता ताम् आपन्नः प्रातः ( द्वि० तत्पु० ) सरस्वदङ्कः ( कर्मधा० ) सरस्वतः समुद्रस्य प्रको मध्यः (10 तत्प० ) यस्यास्तथाभूताम् (ब० वी० ) समुद्र-मध्य-स्थिताभित्यर्थः लङ्काम् एतदाख्या पुरी नगरीम् अपि : याति गच्छति चेत् तत् अभिलषितं वस्तु लङ्केति द्वयमपि स्वः स्वकीयः शयः हस्तः ('पञ्चशाखः शयः पाणिः' इत्यमरः) ( कर्मधा० ) अथवा स्वस्या आत्मनः शयः ( 10 तत्पु० ) तस्मिन् शयालु शयानं स्थितमित्यर्थः प्रवेहि जानीहि / तव कृते सर्वमेव सुप्राप्यमिति भाषः // 66 / / व्याकरण-पापन्न आ + पद्+क्त, त को न / सरस्वान् सरः ( जलम् ) अस्मिन्नतोति सरस्+मतुप म को व / तत् ( अपि ) यहाँ पूर्व प्रक्रान्त वस्तु नपुंसक और लङ्का स्त्रीलिंग है; दोनों का एकशेष होकर नपुंसक शेष रहा हुआ है [ 'नपुंसकपनपुंसकेनैकवच्चान्यतरस्याम्' 12 / 66 ) / शयालु शेते इति Vशी+आलुच् / / अनुवाद-किसी मी वस्तु की अभिलाषा रखता हुआ तुम्हारा मन यदि समुद्र की गोद को पलंग बनाये हुए लंका पुरी तक मी जा रहा है, तो उन दोनों को तुम अपने हाथ आया हुआ समझो।। 66 / / अनुवाद-यहाँ समुद्र की गोंद पर पर्यत्वारोप होने से रूपक, 'पुरीमपि' में 'अपि' शब्द के. बल से 'अन्य की तो बात ही क्या इस अर्थान्तर के आपात से अर्थापत्ति है। विद्याधर ने चित्त और सरस्वान् पर नायक-प्रतिनायक ब्यवहारसमारोप और लंका पर नायिकाव्यवहार समारोप मानकर समासोक्ति मानी है अर्थात् अपने नायक की गोद पर बैठी हुई नायिका भी यदि तुम्हारा चित्त अपने लिए चाहती है, तो वह भी उसे मिल सकती है। शब्दालंकारों में 'शये' 'शया' में छेक, 'अङ्का" 'लकी' में पदान्तगत अन्त्यानुप्रास और अन्यत्र वृत्त्यनुप्रास है। इतीरिता पत्ररथेन तेन हीणा च हृष्टा च बमाण मैमी। चेतो नलं कामयते मदीयं नान्यत्र कुत्रापि च सामिलाषम् // 67 // अन्वयः-तेन पत्ररथेन इति ईरिता भैमी हीणा हृष्टा च सती बभाष-'मदीयम् चेतः लङ्काम् न अयते, अथ च नलम् कामयते, अन्यत्र च कुत्र अपि साभिलाषम् न ( वस्ति ) / टोका-तेन पत्ररथेन पक्षिणा हंसेनेत्यर्थः ('पतत् पत्ररथाण्डजाः' इत्यमरः) इति एवं प्रकारेय. इरिता कथिता भैमी भीमपुत्री दमयन्ती होपा स्वामिलषितवस्तुकथनानुरोधात लज्जिता, हृष्टा अहम. भिलषितवस्तु-प्रापकोऽस्मीति हंसकथनेन प्रसन्ना सती बमाण अवदत्-मदीयं मम चेतो मनः लङ्का पुरी न अयते गच्छति अथ च नलं कामयते, अन्यत्र नकातिरिक्तेऽन्यस्मिन् राजनि वस्तुनि वा कुत्र अपि कस्मिन् अपि सामिलापम् अभिलाषेण सह वर्तमानम् ( व० बो०) प्रमिलाषोत्यथः न अस्कोति शेषः / अत्रापि भैमी वाक्छलेनाहं नलमिच्छामीति कथयति, न तु स्पष्टम् / / 67 // व्याकरण-पत्ररथः पत्रे पक्षौ रथः गमनः साधनं यस्येति / हाणा होया हो+तः त को न, न को प। मदीयम् अस्मत +छ, छ का ईय अस्मत् को मदादेश / .. अनुवाद-इस तरह उस पक्षी (हंस)द्वारा कही गई भैमी लज्जित और प्रसन्न होती हुई बोलो
SR No.032784
Book TitleNaishadhiya Charitam 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohandev Pant
PublisherMotilal Banarsidass
Publication Year
Total Pages402
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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