________________ 346 नैषधीयचरितं महाकाव्यम् अनुवादः-हे उत्तम इन्द्रनीलके समान नेत्रोंवाली ! गाढ अश्रुबिन्दुओं के गिरनेके छलसे तुम्हारी बिन्दुच्युतक काव्यकी अतिचतुरता * शोभित हो रही है। जो कि तुम संसारको स्वयम् वा अपने सामर्थ्यसे सारयुक्त और च्युत अनुस्वारवाला ( ससार ) बनाती हो, इसमें सन्देह नहीं है // 104 // टिप्पणी-मसारसाराक्षि = "मसार इन्द्रनीलमणिः" इति शब्दरत्नावली। मसारेषु सारौ ( स० त० ), तो इव अक्षिणी यस्याः सा, ( बहु० ), तत्सम्बुद्धौ / घनाऽश्रुबिन्दुस्रुतिकतवात् = अश्रृणां बिन्दवः (10 त०), घनाश्च ते अश्रुबिन्दवः ( क० धा० ), तेषां स तिः (ष. त० ), तस्याः कैतवं, तस्मात् (10 त० ) / बिन्दुच्युतकाऽतिचातुरीबिन्दोः ( अनुस्वारस्य) च्युतम् (ष० त० ),तदेव विन्दुस्च्युतकम् ( स्वाऽर्थ में कन् ), तस्मिन् अतिचातुरी ( स० त० ) / "बिन्दुच्युतक" चित्रकाव्यका एक भेद है जिसमें बिन्दु ( अनुस्वार ) के च्युत होनेसे दूसरा अर्थ होता है, जैसे--"यथा सत्प्रसवः स्निग्धः सन्मार्गविहितस्थितिः / तथा सर्वाऽऽश्रयः सत्यमयं मे वकुलद्रुमः / ' यहाँपर एक पक्षमें यथास्थितरूपमें वकुल वृक्ष ( मौलसिरी ) का वर्णन है, दूसरे पक्ष में "अयं मे बकुलद्रुमः" यहाँपर बिन्दु ( अनुस्वार ) की च्युतिसे "अयमेव कुलद्रमः" ऐसा होकर कुलमें द्रुमका आरोप कर उत्तप कुलका वर्ण नरूप अर्थान्तर हो जाता है। वैसे .. "आत्मना संसारं ससारं करोषि" यहाँ बिन्दु ( अनुस्वार ) की च्युतिसे तुम संसारको अपने सामर्थ्य से ससार अर्थात सारयुक्त बनाती हो, इस प्रकार विन्दुच्युतक ( चित्रकाव्यविशेष ) में तुम्हारी चातुरी है यह भाव है / ससारं = सारेण सहितः, तम् / तुल्ययोगबहु० ) / तनोषि = तनु+लट् + सिप / असंशयम् = संशयस्य अभावः (अर्थाऽभावमें अव्ययीभाव)। इस पद्यमें श्लेष, अपह नुति और उत्प्रेक्षा अलङ्कारोंकी संसृष्टि है / / 104 // अपास्तपाथोरुहि शायितं करे करोषि लोलानलिनं किमाननम् ? / तनोषि हारं कियदश्रुणः स्रवरदोषनिर्वासितभूषणे हृदि ? // 105 // अन्वयः-(हे प्रिये ! ) अपास्तपाथोहि करे शायितम् आननम् ( एव ) लीलानलिनं किं करोषि ? अदोषनिर्वासितभूषणे हृदि अश्रुणः सवैः ( एव ) कियत् हारं तनोषि ? / / 105 / / व्याख्या -अपास्तपाथोरुहि = त्यक्तलीलाकमले, करे = हस्ते, शायितं = स्थापितम्, आननम् = मुखम् एव, लीलानलिनं = लीलाकमलं, कि = किमिति, करोषि = विदधासि, लीलाकमलं विहाय करकपोलकरणे किं कारणमिति भावः /