________________ 238 नैषधीयचरितं महाकाव्यम् तिष्ठतीति, हृदि स्था+क: + ( उपपद० ) (अलुक०)। वारिपः = वारीणि पातीति, वारि+पा+क: (उपपद०) समुद्रको अपने भीतर विद्यमान वडवाग्निसे भी वैसा ताप नहीं होता है जैसा कामदेवसे पीडित अपने स्वामी वरुभका स्मरण करनेसे राप होता है / इस पद्य में ऐसे ताप का सम्बन्ध न होनेपर भी सम्बन्धका वर्णन करनेसे अतिशयोक्ति अलङ्कार है / / 81 / / यत्प्रत्युत स्वन्तदुबाहुवल्लीस्मतिनजं गुम्फति दुविनीता। ततो विधत्तेऽधिकमेव तापं तेन श्रिता शैत्यगुणा मृणाली // 82 // अन्वयः ---. ( हे दमयन्ति ! ! तेन श्रिता शैत्यगुणा ( तथाऽपि ) दुविनीता मृणाली यत् त्वन्मृदुबाहुवल्लीस्मृतिस्रजं गुम्फति, ततः प्रत्युत अधिकं तापम् एव विधत्ते // 82 // __ व्याख्या -तेन = वरुणेन, श्रिता = सेविता, मदनतापशान्तय इति शेषः, शैत्यगुणा = शीतलत्वगुणा, तथाऽपि दुविनीता = विनयरहिता, प्रतिकूलचारिणी इति भावः / मृणाली = बालमृणालम्, यत्, त्वन्मृदुबाहुवल्लीस्मृतिस्रजं भवकोमलभुजलतास्मरणमालां, गुम्फति = रचयति, निरन्तरं मारयतीति भावः / ततः = तस्मात्, त्वबाहुस्मारकत्वाद्धेतोरिति भावः / प्रत्युत = उक्तवपरीत्येन, अधिकं = साऽतिशयं, तापं = सन्तापम् एव, विधते = करोति / / 82 // अनुवादः-(हे दमयन्ति ! ) वरुणने कामताप की शान्तिके लिए लिया गया शीतगुणवाला दुविनीत ( प्रतिकूलकारी ) छोटासा मृणाल जो आपकी भुजलताकी स्मरणमाला रचता है, उस कारणसे उलटा वह अधिक सन्तापको ही उत्पन्न करता है // 82 // टिप्पणी शैत्यगुणा = शैत्यं गुणो यस्याः सा (बहु० ) / मृणाली = अल्पं मृणालम, अवयवकी अपचयविवक्षामें "षिद्गौरादिभ्यश्च" इससे ङीष् / "स्त्री स्यात्काचिन्मृणाल्यादिविवक्षाऽपचये यदि / " इत्यमरः / त्वन्मृदुबाहुवल्लीस्मृतिस्रज = वाहुः वल्ली इव ( उपमित०), मृदुश्चाऽसो बाहुवल्ली ( क० धा० ) / तव मृदुबाहुवल्ली (ष० त० ) / तस्याः स्मृतयः (10 त० ), तासां स्रक्, ताम् (ष० त० ) / कामतापकी शांन्तिके लिए वरुणसे ली गई मणाली आपकी बाहुलताकी स्मृतिको उत्पन्न करके बहुत ताप करती है यह भाव है। अतः स्मरण अलङ्कार है / तापशान्तिके लिए ली गई मृणाली उसके विरुद्ध तापरूप कार्यको उत्पन्न करती है ऐसा कहनेसे विषमाऽलङ्कार है / इस प्रकार दो अलङ्कारोंका अङ्गाङ्गिभावसे सङ्कर अलङ्कार है // 82 //