________________ नेषषोयचरितं महाकाव्यम् (नन्० ), मुखं, न / दमयन्तीका मुख नारदको आह्लाद ( हर्ष ) करनेवाला नहीं है यह बात नहीं है अर्थात् गानकलाके अभ्यासके लिए नारद मुनि भी दमयन्तीके मुग्यकी सेवा करते हैं यह भाव है। दूसरे पक्षमें-नानारदाह्लादि = नाना च ते रदाः ( क० धा० ), तः आह्लादयतीति, नानारद+ आङ+ ह्लाद+ णिनि ( उपपद०)+सु / दमयन्तीका मुख अनेक. दन्तोंसे आह्लाद करनेवाला परमसुन्दर है यह भाव है। महाभारतसर्गयोग्यः = भरतान् ( भरतवंशोत्पन्नान् राज्ञः ) अधिकृत्य कृतो ग्रन्थो भारतम, भरत शब्दसे "अधिकृत्य कृते ग्रन्थे" इस सूत्रसे अण् प्रत्यय / महच्च तत् भारतम् ( क 0 धा० ) / तस्य सर्गः (10 त०), तस्मिन् योग्यः ( स० त० ) / श्रितोरुः = श्रितो ऊरू येन सः ( बहु० ) / महाभारतकी रचना करनेवाले व्यास-मुनि भी दमयन्तीके ऊरुओंको कदलीके स्तम्भ समझकर आश्रय करते हैं। दूसरे पक्ष में--महाभाः- महती भा: यस्य सः ( बहु 0 ) / रतसर्गयोग्यः = रतस्य (सुरतस्य ) सर्गः / सम्पादनम् ), (10 त०), तस्मिन् योग्यः ( स० त० ) / व्यासः = "व्यासो ना विस्तृतो मनौ" इति मेदिनी। बड़ी कान्तिवाले, रतिक्रीडाके योग्य विस्तारने दमयन्तीके ऊरुओंका आश्रय लिया है यह भाव है। दमयन्तीके कुच अत्यन्त उन्नत हैं, मुख अनेक दन्तोंसे सुन्दर है और ऊरु अत्यन्त विस्तारवाला है यह पद्य का समग्र भावार्थ है। इस पद्यमें श्लेषमूलक मुनियोंके मोहकी उत्प्रेक्षासे मुनिलोग भी दमयन्तीमें मुग्ध होते हैं, औरों का क्या कहना है, इस प्रकार अलङ्कारोंसे वस्तुध्वनि है // 95 // क्रमोदगता पीवरताऽधिजङ्घ वृक्षाऽधिरूढिं विदुषी किमस्याः / अपि भ्रमीङ्गिभिरावृताऽङ्गं वासो लतावेष्तिकावोणम् // 96 // अन्वयः - अस्या अधिजङ्घ क्र. दिगता पीवरता वृक्षाऽधिरूढ़ि विदुषी किं ? भ्रमीभङ्गिभिः आवृताऽङ्ग वासः अपि लतावेष्टितकप्रवीणं किम् ? // 96 // व्याख्या-अस्याः = दमयन्त्याः, अधिजङ्घ= जङ्घायां, स्थितेति शेषः / क्रमोद्गता = क्रमोदिता, पीवरता = पीनता, * वृक्षाऽधिढिम् = आलिङ्गनविशेष, विदुषी किं = ज्ञात्री किम् ? ( किञ्च ) भ्रमीभङ्गिभिः = देष्टनविशेषः, आवृताऽङ्गम = आच्छादितगात्रं, वासः अपि = वस्त्रम अपि, लतावेष्टितकप्रवीणं किं = लतावेष्टिताख्यालिङ्गनविशेषनिपुणं किम // 96 // अनुवाद:-इस ( दमयन्ती ) की जङ्घाओंमें क्रमसे ऊपर उठी हुई स्थूलता वृक्षाधिरूढिनामक आलिङ्गनको वा वृक्षके वृद्धिक्रमको जानती है क्या? वेष्टन