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________________ 192 नैषधीयचरितं महाकाव्यम् हे वीर ! यशोभिः कीर्तिभिः, दिशोऽपि =दिगन्तानपि, पूरय परिपूर्णाः ___ अनुवाद--(हे राजन् ! ) दूसरे लोग किसी भी वरको उद्देश्य करके जिन हम लोगों से प्रार्थना करते हैं, वैसे हम लोग भी जिस वरको उद्देश्य करके आपसे प्रार्थना करते हैं, आश्चर्य है ! वैसे आप हम लोगोंके अभिलाषको ही नहीं पूर्ण करें, बल्कि हे शूर ! अपनी कीतिसे दिशाओंको भी पूर्ण करें। टिप्पणी-यान् = "अर्थयितारः" तृन्प्रत्ययान्त इस पदके योगमें "न लोकाऽव्यय०" इत्यादि सूत्रसे षष्ठीका निषेध होनेसे द्वितीया / अर्थयितार:= अर्थयन्त इति, अर्थ + णिच् + तृन् (ताच्छील्यमें ) जस् / पूरय-पूर+णिच् + लोट् + सिप् / हे महाराज ! हमारे अभिलाषको पूर्ण करनेसे आपकी कीति सब दिशाओं में फैलेगी, नहीं तो वैसे ही अकीर्ति भी फैलेमी, यह तात्पर्य है // 132 // अथितां त्वयि गतेषु सुरेषु म्लानदानजनिजोक्यश:श्रीः / अद्य पाणु गगनं सुरशाखी केवलेन कुसुमेन विधत्ताम् // 133 // अन्वयः-(हे राजन् ! ) अद्य सुरशाखी सुरेषु (अस्मासु) त्वयि अर्थितां गतेषु म्लानदानजनिजोरुयशःश्रीः ( सन् ) केवलेन कुसुमेन गगनं पाण्डु विधत्ताम् / व्याख्या-( हे राजन् ! ) अद्य अस्मिन दिने, सुरशाखी देववृक्षः, कल्पवृक्ष इत्यर्थः / सुरेषु =देवेषु, इन्द्रादिषु, त्वयि भवति विषये, अथितां याचकता, गतेषु प्राप्तेषु, म्लानदानजनिजोरुयशःश्री: मलिनवितरणजन्यस्वीयमहाकीर्तिशोभः सन्, केवलेन कीतिरहितेन, कुसुमेन =पुष्पेण, गगनम्आकाशं, पाण्डु- शुभ्रं, विधत्ता-करोतु / अनुवाद-(हे राजन् ! ) आज कल्पवृक्ष, हम देवताओंके आपके याचक होनेपर दानसे उत्पन्न अपनी बड़ी कीर्तिकी शोभाके मलिन हो जानेसे कीर्ति. रहित फूलसे ही आकाशको श्वेत करे। ___ टिप्पणी-सुरशाखी=सुराणां शाखी (प० त० ) / म्लानदानजनिजोरयश:श्री:=दानात् जाता दानजा, दान+जन् +3+टाप् ( उपपद०), यशसः श्रीः (10 त०)। म्लाना दानजा निजा उरुः यशःश्रीः यस्य सः (बहु० ) / कुसुमे-करणमें तृतीया। विधत्ता-वि+धा+ लोट् +al
SR No.032779
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSheshraj Sharma
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year
Total Pages1098
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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