________________ प्रथमः सर्गः नहीं गिना ? उसी तरह लोककी सृष्टि करने वाले उन्होंने लोमकूपोंके बहानेसे नलके दोषोंके अभावसूचक शन्यबिन्दुओंको क्या नहीं किया ? // 21 // टिप्पणी- रोम्णां = "तनूरुहं रोम लोम" इत्यमरः / अजीगणत् = "गण संख्याने" धातुसे णिच् प्रत्यय होकर लुङ्का रूप है, "ई च गणः" इससे ईत्व हुआ है। जगत्कृता = जगत् करोतीति जगत्कृत, तेन, जगत्,+कृ + क्विप्+ टा ( उपपद०)। रोमकूपौघमिषात् = रोम्णां कृपाः (10 त० ), तेषामोघः (10 त० ), तस्य मिषं, तस्मात् (ष० त०)। दूषणशून्यबिन्दवः = दूषणानां शून्यानि ( 10 त० तत्सचका बिन्दवः (मध्यमपदलोपी स० ) / इस पद्यमें दो अपह्न.तियां और दो अर्थापत्तियां इनकी संसृष्टि है // 21 // अमुष्य दोामरिदुर्गलुण्ठने ध्रवं गृहीतागंलदीर्घपीनता। ' उरःश्रिया तत्र च गोपुरस्फुरत्कपाटदुषर्षतिरःप्रसारिता / / 22 / / - अन्धयः-अमुष्य दोाम् अरिदुर्गलुण्ठने अगलदीर्घपीनता गृहीता ध्रुवम् / उत्र उर:श्रिया च गोपुरस्फुरत्कपाटदुर्धर्षतिरःप्रसारिता गृहीता ध्रुवम् // 22 // व्याख्या-अमुष्य = नलस्य, दोभ्या = बाहुभ्याम्, अरिदुर्गलुण्ठने = शत्रुः दुर्गमस्थलबलात्कारग्रहणे, अर्गलदीर्घमीनता = विष्कम्भायतपुष्टता, गृहीता ध्रुवम् = उपात्ता किम् ? तत्र-अरिदुर्गलुण्ठने, उर:श्रिया च वक्षःस्थलसम्पत्या च, गोपुरस्फुरत्कपाटदुर्धर्षतिरःप्रसारिता - पुरद्वारप्रकाशमानकपाटाऽधृष्यता तिर्यकप्रसरणशीलता च, गृहीता ध्रुवम् = उपात्ता किमु // 22 / / अनुवादा-नलकी बाहोंने शत्रुओंके किलोंको बलात्कार से ग्रहण करनेमें अर्गलाके समान लम्बाई और मुटाईको ग्रहण कर लिया है ऐसा मालूम पड़ता है। उसमें वक्षःस्थलकी शोभाने शहरके द्वारमें प्रकाशमान कपाट ( किवाड़) के समान दुर्धर्षता और तिरछी विस्तृतताको ग्रहण कर लिया है ऐसा प्रतीत होता है // 22 // 9. टिप्पणी-दोभ्यां = "भुजबाहू प्रवेष्टो दोः" इत्यमरः / अरिदुर्गलुण्ठने = खेर गम्यत एषु इति दुर्गागि, दुर्-उपसर्ग पूर्वक गम् धातुसे 'सुदुरोरधिकरणे" स सूत्रसे ड प्रत्यय / पर्वत आदि दुर्गम स्थानोंको "दुर्ग"कहते हैं। ऐसे दुर्गाके भेद होते हैं, जैसा कि भगवान मनुने कहा है "धन्वदुर्ग महीदुर्गमन्दुगं वाक्षमेव वा / नदुर्ग मिरिदुर्ग वा समाश्रित्य वसेत्पुरम // "-7. / पर्थात् मरुदुर्ग, महीदुर्ग, जलदुर्ग, वृक्षदुर्ग और पर्वतदुर्ग राजा इनमें