________________ नैषधीयचरितं महाकाव्यम् - अनुवाद-दमयन्ती ऐसा कहकर उसी समय मनमें कामाग्निके बढ़नेसे मूच्छित हो गई / जैसे कि दुःखिता वह, अनुपपन्न होनेपर भी हृदय में विद्यमान नलरूप अवलम्बलेशके छेदनका कैसे सहन करें। टिप्पणी-उदीर्य उद् + ईर+क्त्वा ( ल्यप् ) / मूच्छितमन्मथपावकामूच्छितो मन्मथ एव पावको यस्याः सा ( बहु०)। मुमूर्छ= "मूर्छा मोहसमुच्छाययोः" इस धातुसे लिट् + तिप् ( णल ) / दुःखिता=दुःख + इत+टाप् / अनुपपत्तिमतीम् -न उपपत्तिः(नन ) / अनुपपत्ति + मतुप्+ डीप+अम् / अवलम्बलवच्छिदाम् =अवलम्बस्य लवः (10 त०), तस्य च्छिदा, ताम् (10 त०) / सहतां=षह+लोट+त / दुःखसे उद्विग्न जनको भ्रान्तिसे वा बिना भ्रान्तिसे अनिष्टकी प्रतीतिको सहना अत्यन्त दुष्कर है, इसलिए जो भैमीको मूर्छा हुई, यह स्वाभाविक है, यह इस पद्यका तात्पर्य है। इस पद्यमें अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है // 110 // अधित काऽपि मुखे सलिलं सखी, प्यषित काऽपि सरोजदलः स्तनौ। ग्यधित काऽपि हृदि व्यजनाऽनिलं, न्यषित काऽपि हिमं सुतनोस्तनौ // 111 // अन्वयः- काऽपि सखी सुतनोः मुखे सलिलम् अधित / काऽपि ( सखी ) स्तनी सरोजदलः प्यधित / काऽपि हृदि व्यजनाऽनिलं व्यधित / काऽपि तनी हिमं न्यधित / __ व्याख्या-काऽपि = काचित्, सखी = वयस्या, सुतनोः = सुन्दर्याः दमयन्त्याः , मुखे-वदने, सलिलं-जलम्, अधित=आहितवतीति भावः / काऽपिकाचित् सखी, स्तनो=कुची, मदनसन्तापादनावृताविति शेषः / सरोजदलै:कमलपत्त्रः, प्यधित=आच्छादितवती / काऽपि=सखी, हृदि= हृदये, व्यजनाऽनिलं=तालवृन्तवातं, व्यधित=विहितवती, तालवृन्तेन वीजयामासेति भावः / एवं च काऽपि सखी, तनो-शरीरे, हिमं=चन्दनं, तुहिनं वा / न्यधित=निहितवती। __ अनुवाब-किसी सखीने सुन्दरी दमयन्तीके मुखमें जल डाल दिया। किसीने उनके स्तनोंको कमलके पत्तोंसे ढंक दिया। किसीने उनके हृदयमें पखेकी हवा की और किसी सखीने दमयन्तीके शरीरपर चन्दन वा बरफका लेप किया। टिप्पणी-सुतनोः शोभना तनुर्यस्याः सा, तस्याः ( बहु० ) / अधित= धा+ल+त / सरोजदलः सरोजानां दलानि, तैः (10 त०) / प्यधित