________________ चतुर्थः सर्गः न्द्रस्य न चेदिति भावः / तत् तहि, तव एव भवत्या एव, हृदयाय = हृदे, शपे आक्रोशामि, त्वज्जीविताय ह्यामीति भावः / दमयन्ती प्रत्युत्तरयति-हे सखि हे वयस्ये ! रुचिफलम् एव =तेजोमात्रकार्यम् एव, दृश्यतेअवलोक्यते, अनुभूयत इति भावः / यत्-यस्मात्, त्वचं-चर्म, ज्वलयतिदहति, असून प्राणान्, उल्ललयति =उन्मूलयति / ____ अनुवाद-सखी-"हे सखि दमयन्ति ! तुम चन्द्रमाकी प्रभाका विषय नहीं हो तो मैं तुम्हारे हृदयकी कसम खाती हूँ"। दमयन्ती-“हे सखि ! तेज मात्रका कार्य ही अनुभूत हो रहा है, जो कि चमड़ेको जला रहा है और प्राणोंको उन्मूलित कर रहा है" टिप्पणी-हृदयाय = "शपे" इसके योगमें "श्लाघहस्थाशपां जीप्समानः" इस सूत्रसे सम्प्रदान संज्ञा होकर चतुर्थी / रुविफलं रुचेः फलम् (10 त०)। उल्ललयति=उद्+लल+णिच् + लट् +तिप् / सब तेज उष्ण होनेसे दाहक ही होता है दूसरे पदार्थसे अभिभूत होनेसे कहीं-कहींपर दाहक नहीं होता है, पदार्थतत्त्ववादी ऐसा कहते हैं / / 106 // "विषुविरोधितिरमिधायिनीमयि ! न कि पुनरिच्छसि कोकिलाम् ?" "सखि ! किमर्थगवेषणया ? गिरं किरति सेयमनर्षमयीं मयि" // 10 // अन्वयः- "अयि ! विधुविरोधितिथेः अभिधायिनी कोकिलां पुनः किं न इच्छसि ?" | "हे सखि ! अर्थगवेषणया किं ? सा इयं मयि अनर्थमयीं गिरं किरति"। ____ व्याल्या-अयि हे सखि दमयन्ति ! विधुविरोधितिथेः=चन्द्रशत्रुतिथेः, कुह्वाख्याया अमावास्यायास्तिथेरिति भावः / अभिधायिनी-कुहूकुह्विति नामग्राहं तदाहायिनीमित्यर्थः / कोकिलां-पिकी, पुनः भयः, किं न इच्छसि =कि न वाञ्छसि ? इति सख्या उक्तिः / हे सखि हे वयस्ये ! अर्थगवेषणयावाच्याऽन्वेषणेन, कुहूशब्दस्य नष्टचन्द्रा तिथिरः इति विचारेणेति भावः / कि =तत्साध्यं न किमपीति भावः / कुतः-सातादृशी, कुहूशब्दोच्चारिणी, इयं कोकिला। मयि विषये, अनर्थमयीम् अनर्थशून्याम् / वज्रघोषवत् पद्रूपां च, गिरं = ध्वनि, किरति =विक्षिपति। अनुवाद-सखी- "हे दमयन्ति ! आप चन्द्रमाकी शत्रुभूत तिथि 'कुहू" को उच्चारण करनेवाली कोयलको फिर क्यों नहीं चाहती हैं ? दमयन्ती-"हे सखि ! अर्थके अन्वेषणसे क्या होता है ? वह कोयल मेरे विषयमें अर्थशून्य अथवा आपत्तिरूप ध्वनिको फैला रही है।"