________________ नैषधीयचरितं महाकाव्यम् - अनुवाद-जिस पक्षने वियोगियोंसे बहुत मान ( सम्मान ) पाया, वह पक्ष इस लोक में "बहुल पक्ष" हुआ। जिस तिथिमें उन सम्पूर्ण वियोगियोंने सम्मानकी अपरिमिति ( अपरिमितता ) पायी, उस तिथिको अमा बनाया है क्या ? टिप्पणी-विरहिभिः = विरह + इनि+भिस् / बहुमानं=बहुश्चाऽसौ मानः, तम् ( क० धा० ) / अवापिअव+आप+णिच् + लुङ् ( कर्ममें )+ त / बहुल:= बहु ( अधिक ) यथा तथा लाति- आदत्ते इति, बहु-+ला+ कः ( उपपद०)। अजनि=जन् + लुङ+त। विरहियोंसे अधिक मान( सम्मान )को लेनेसे "बहु लाति" इस व्युत्पत्तिसे कृष्णपक्ष "बहुल" हो गया है क्या? यह तात्पर्य है, यत्रयस्याम् इति, यद्+त्रल् / तदमितिः=न मितिः अमितिः ( नज०), तस्य (बहुमानस्य ) अमितिः (10 त० ) / व्यरचि=वि.+रच् + णिच् + लु+त। अमा=अविद्यमाना (मानस्य ) मा ( मितिः) यस्यां सा अमा ( नब्बहु० ), जिस तिथिमें उन सब विरहियोंने मानकी अमिति ( अपरिमितता ) की, उस तिथिको "अविद्यमाना मा यस्यां सा" इस व्युत्पत्तिसे "अमा". नामवाली बनाया है क्या ? सूर्य और चन्द्रके अमा( सहभाव )से "अमा" नाम नहीं हुआ है, यह तात्पर्य है। इस पद्यमें उत्प्रेक्षा अलङ्कार है और निरुक्त नामका लक्षण है / / 63 // - स्वरिपुतीक्ष्णसुदर्शनविभ्रमाकिमु विधु प्रसते न विषुन्तुवः ? / निपतितं वदने कथमन्यथा बलिकरम्भनिभं निजमुज्झति ? // 64 // अन्वयः-विधुन्तुदः विधं स्वरिपुतीक्ष्णसुदर्शनविभ्रमात् न असते किमु ? अन्यथा वदने निपतितं निजं बलिकरम्भनिभं कथम् उज्झति ? ___ व्याल्या-विधुन्तुदः = राहुः, विधं = चन्द्रमसं, स्वरिपुतीक्ष्णसुदर्शनविभ्रमात् =निजशत्रुनिशितचक्रभ्रान्तेः, न ग्रसते किमु - नो भक्षयति किम् ? तालुच्छेदभयादिति भावः / अन्यथा- भयाऽभावे सति, वदने =मुखे, निपतितम् =अन्तर्गतं, निजं स्वकीयं, बलिकरम्भनिभम् =उपहारदधिसक्तुसदृशं, कथंकेन प्रकारेण, उज्झति=उगिरति / अनुवाद-राहु चन्द्रमाको अपने शत्रु विष्णु के तीक्ष्ण सुदर्शनचक्रकी भ्रान्ति होनेसे ग्रास नहीं करता है क्या ? नहीं तो मुख में पड़े हुए उपहाररूप दहीसे उपसिक्त सत्तूके गोलेके सदृश उसको कैसे छोड़ देता है ?