________________ नैषधीयचरितं महाकाव्यस अनुवाद-चन्द्रमाने वियोगसे पाण्डुवर्णवाले दमयन्तीके कपोलमें प्रतिबिम्बित होकर समानवर्ण होनेसे सफेद किरणोंके नहीं देखे जानेसे अनायासपूर्वक अपने कलङ्करूप मृगको अर्पण कर दमयन्तीके मुखको अपना मित्र ( स्व. सदृश कलयुक्त ) बनाया। -.. टिप्पणी-भीमभुवः= भीमाद्भवतीति भीमभूः, तस्याः भीम + भू+ क्विप् ( उपपद० ) + ङस् / विरहपाण्डुकपोलतले विरहेण पाण्डु (तृ० त०), कपोलस्य तलम् (10 त०), विरहपाण्डु च तत् कपोलतलं, तस्मिन् (क० धा० ) / अनुपलक्ष्यसितांऽशुतया=न उपलक्ष्याः (न०), अनुपलक्ष्याः सिता अंशवो यस्य सः अनुपलक्ष्यसितांऽशुः ( बहु० ), तस्य भावस्तत्ता, तया, अनुपलक्ष्यसितांऽशु+तल+टाप्+टा / सुखं ( कि० वि० ) / बङ्कमृगाऽर्पणात =अकुश्चाऽसौ मृगः (क० धा० ), तस्य अर्पणं, तस्मात् (10 त०)। निजसवं =निजस्य सखि, तद् (10 त०)। व्यधित=वि+धा+लु+त। दोषी लोग अपने संसर्गी निर्दोषको भी अपने दोषको संक्रान्त करके अपने समान बनाते हैं, यह अभिप्राय है। इस पद्यमें चन्द्रमाकी दमयन्तीके कपोलकी सदशतासे.सामान्य अलङ्कार है। जैसे कि "सामान्यं प्रकृतस्याऽन्यतादात्म्यं सदशैर्गुणः / " 10+116 ( सा० द०)॥ 26 // विरहतापिनि चन्दनपांसुभिर्वपुषि सापितपाण्डिममण्डना / विषधराऽऽमविसाऽऽभरणा बधे रतिपति प्रति शम्भुविभीषिकाम् // 27 // अन्वयः-सा विरहतापिनि वपुषि चन्दनपांसुभिः अपिमाण्डिममण्डना विषधराऽऽभबिसाऽऽभरणा ( सती ) रतिपति प्रति शम्भुविभीषिकां दधे / व्याख्या-सा=दमयन्ती, विरहतापिनि=वियोगसन्तप्ते, वपुषि= स्वशरीरे, चन्दनपांसुभिः=श्रीखण्डरजोभिः, अपितपाण्डिमबण्डना=सम्पादित. पाण्डुत्वाऽलङ्कारा, विषधराऽऽभबिसाऽभरणा=सर्पतुल्यमृणालाऽलङ्कारा सती, रतिपतिं प्रति=कामदेवं प्रति, शम्भुविभीषिकां=शम्भुरेवेयमिति भयोत्पादन, दधे = दधार, नूनमिति शेषः / अनुवाद-दमयन्तीने वियोगसे सन्तप्त अपने शरीरमें चन्दनके चूर्णोसे पाण्डुत्वरूप अलङ्कारको सम्पादित कर सर्पके सदृश मृणालको बाभरण बनाती हुई कामदेवके प्रति "यह शम्भ ही है" इस प्रकार मानों भयको उत्पन्न किया। टिप्पणी-विरहतापिनि=विरहेण तपतीति तच्छीलं विरहतापि, तस्मिन्, विरह+तप+णिनि ( उपपद०)+छि। चन्दनपांसुभिः चन्दनस्य पांसवः,