________________ नेषवीयचरितं महाकाव्यम् अष्टादशद्रीपपृथग्विजयलक्ष्मीनां, जिगीषया = जेतुमिच्छया (इव), अष्टादशताम्= अष्टादशसंख्यकत्वम्, अगाहन = अभजत // 5 // ____ अनुवादः-नलकी जिह्वाके अग्रभागमें नर्तकीके समान विद्या ( वेदादिविद्या, अथवा पाकविद्या ) ने यी-त्रिवेदी ( तीन वेदों) के समान शिक्षा आदि छः अङ्गोंकी गुणनक्रियासे वृद्धिको प्राप्त करायी जाती हुई नलकी अठारह द्वीपोंकी पृथक्-पृथक् विजय-लक्ष्मियोंको जीतनेकी इच्छासे अठारह संख्याको प्राप्त किया / / 5 // टिप्पणी- रसनाऽग्रनर्तकी = रसनाया अग्रम् (ष०.त०), नृत्यतीति नर्तकी, "नृती गात्रविक्षपे" धातुसे "शिल्पिनि वन्" इस सूत्रसे "नृतिख निरञ्जिभ्य एव" इसके अनुसार "वुन्" प्रत्यय होकर षकारका "षः प्रत्ययस्य" इसरे इत्संज्ञा होनेसे लोप होकर षित होनेसे "षिद्गौरादिभ्यश्च" इससे डी / क्रियाकोशलको "शिल्प" कहते हैं। रसनाऽने नर्तकी ( स० त०)। विद्या नलकी जिह्वाके अग्र भागमें नाचती थी अर्थात सब विद्याएँ उनको उपस्थित थीं। त्रयी त्रयः ( ऋग्यजु:सामाख्याः अथवा पद्यगद्यगीतरूपा अथवा प्रायेण धर्माऽर्थकामरूपाः ) अवयवा यस्याः सा, 'त्रि' शब्दसे "संख्याया अवयवे तयप्" इस सूत्रसे तयप् और उसके स्थानमें "द्वित्रिभ्यां तयस्याऽयज्वा" इस सूत्रसे अयच् आदेश और श्रुतिका विशेषण होनेसे "टिड्ढाणक०" इत्यादि सूत्रसे डीप् / 'त्रयी' कहनेसे ऋक्, यजु, साम ही वेद हैं, अथर्वा वेद नहीं है यह नहीं समझना चाहिए / यहाँपर 'अङ्गगुणेन' इस पदके साथ सम्बन्ध करनेके लिए ऐसा प्रयोग किया है। वेदके कोई अवयव ऋग्रूप अर्थात् पद्यमय, कोई यजुरूप अर्थात् गद्यमय और कोई समरूप अर्थात् गीतरूप हैं ऐसा कहनेसे अथर्ववेदका भी इनमें अन्तर्भाव हो जाता है / अथवा प्रायेण मन्त्ररूप वेदके प्रतिपाद्य विषय धर्म, अर्थ, काम ही अवयव हैं, अतएव भगवान्ने अर्जुनको "गुण्यविषया वेदा निस्त्रगुण्यो भवाऽर्जुन"। कहा है / मोक्षका प्रतिपादन अधिकतर ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदें है। अङ्गगुणेन = अङ्गानां गुणः, तेन (ष० त०) / वेदके छः अङ्ग हैं--शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष / त्रयीको छः अङ्गोंसे गुणन करनेपर अठारह संख्या होती है। विस्तरं-विस्तरणं विस्तरः, तम्, वि-उपसर्गपूर्वक “स्तृन् आच्छादने" धातुसे "ऋदोरप्" इससे अप् प्रत्यय / शब्दके फैलावमें विस्तर शब्द है / इतर विषयके फैलावमें पूर्वोक्त-उपसर्गयुक्त धातुसे "प्रथने वावशब्दे"