________________ प्रथमः सर्गः __ इस सूत्रसे घन् प्रत्यय होकर "विस्तार" शब्द बनता है। अतएव अमरसिंहने कहा है-- __ "विस्तारो विग्रहो व्यासः, स च शब्दस्य विस्तरः।" नीता=नी+ क्त+टाप् / नवद्वयद्वीपपृथग्जयश्रियां-द्वी अवयवी यस्य तत् द्वयम्, द्वि+तयप् ( अयच् ) / द्विर्गता आपो यस्मिन् इति द्वीपम् ( बहु० ), "दघन्तरुपसर्गेभ्योऽप ईत्" इस सूत्रसे अप्के अकारके स्थानमें ईत्व / ऋक्पूरब्धपथामानक्षे" इस सूत्रसे समासाऽन्त 'अ' प्रत्यय / "द्वीपोऽस्त्रियामन्तरीपं यदन्तििरणस्तटम् / " इत्यमरः / नवान द्वयम् (ष० त०)। नवद्वयं च ते द्वीपाः (क० धा०)। नवद्वय कहनेसे अठारह द्वीप जाने जाते हैं / इनमें सात महाद्वीप हैं जैसे कि-१. जम्बूद्वीप, 2. प्लक्षद्वीप, 3. शल्मलीद्वीप, 4. कुशद्वीप, 5. क्रौञ्चद्वीप, ६.शाकद्वीप और 7. पुष्करद्वीप / ये नाम श्रीमद्भागवके अनुसार हैं। स्वर्णप्रस्थ आदि आठ जम्बूद्वीपके उपद्वीप हैं, तीन अन्य द्वीप हैं / महाकवि कालिदासने भी "अष्टादशदीपनिखातयूपः" कहकर अठारह द्वीपोंकी चर्चा की है / जयस्य श्रियः (ष० त०), नवद्वयद्वीपानां पृथग्जयश्रियः, तासाम् (ष० त०) "जिगीषया" इस कृदन्तपदके योगमें "कर्तृकर्मणोः कृति" इस सूत्रसे कर्ममें षष्ठी / जिगीषया-जेतुमिच्छा जिगीषा, सन् प्रत्ययान्त "जि जये" धातसे "अप्रत्ययात्" इससे 'अ' प्रत्यय और टाप् / अष्टादशताम् अष्टौ च दश च अष्टादश (द्वन्द्वः), "द्वयष्टनः संख्यायामबहुव्रीह्यशीत्योः" इससे आत्व हुआ है / अष्टादशानां भावः अष्टादशता, ताम्, अष्टादशन् + तल+टाप् / अगाहत="गाहू विलोडने" धातुसे "अनद्यतने लङ्” इस सूत्रसे लङ् / पूर्वोक्त चौदह विद्याओंके साथ वेदोंके चार उपवेदआयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्ववेद और अर्थशास्त्र इनमें भी महाराज नल पारदर्शी थे यह बात इस पद्यसे सूचित होती है / नवद्वयद्वीपपृथग्जयश्रियां जिगीषया अर्थात् नलसे जीते गये अठारह द्वीपोंकी पृथक जश्रियोंको मानों जीतनेकी इच्छासे उनकी विद्याओंने भी अठारह संख्याको प्राप्त किया। यहाँपर उत्प्रेक्षावाचक शब्द इव आदि न होनेसे प्रतीयमानोत्प्रेक्षा और उपमा, इनका संसृष्टि अलंकार है // 5 // दिगोशवृन्दांशविभूतिरीशिता विशां स कामप्रसभाऽवरोधिनीम् / बभार शास्त्राणि दृशं व्याधिको निजत्रिनेत्राऽवतरत्वबोधिकाम् // 6 // अन्वयः-दिगीशवृन्दांऽशविभूतिः दिशाम् ईशिता सः शास्त्राणि कामप्रसभा:वरोधिनी निजत्रिनेत्राऽवतरत्वबोधिका द्वयाऽधिकां दृशं बभार // 6 // व्याख्या-नलस्य देवांशत्वं प्रतिपादयति-दिगीशेति / दिगीशवृन्दांऽशविभूति: