SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीया सर्गः आदि वर्णोसे युक्त क्यों न हो ? मनुष्य आदिके अनेक मुखोंसे शब्दोंको प्राप्त करनेवाली जो नगरी स्वरके भेदको क्यों नहीं प्राप्त करेगी? और बहुमुखवालों (चतुर्मुख = ब्रह्मा, पञ्चमुख = महादेव और षण्मुख = कार्तिकेय) शब्दको प्राप्त करनेवाली जो कुण्डिननगरी स्वर्गसे अभेदको क्यों नहीं प्राप्त करेगी? // 98 // टिप्पणी-चित्रमयी-प्रचुरं चित्रमस्ति यस्याः सा, चित्र+मयट् + डीप "आलेख्याऽश्चर्ययोश्चित्रम्" इत्यमरः / स्थितिशालिसमस्तवर्णतां स्थित्याशाड-( ल )न्ते तच्छीलाः इति स्थितिशालिनः, स्थिति+शा+णिनि / "ड" और "ल" के अभेदसे "स्थितिशालिनः" ऐसा पद हुआ है / "स्थितिः स्त्रियामवस्थाने मर्यादायां च सीमनि" इत्यमरः / समस्ताश्च ते वर्णाः (क० धा० ), "वर्णो द्विजाऽऽदी शुक्लादी स्तुती, वर्णं तु वाऽक्षरे" इत्यमरः / स्थितिशालिनः समस्तवर्णा यस्याः सा ( बहु० ), तस्याः भावः स्थितिशालिसमस्तवर्णता, ताम्, स्थितिशालिसमस्तवर्णा+ तल् + टाप् + अम् / “सामान्ये नपुंसकम्" इससे नपुंसकलिङ्गता / बिभर्तु =डुभृश् +लोट्+तिम् / आश्चर्यमयी इस नगरीमें ब्राह्मण आदि संपूर्ण वर्ण अपनी मर्यादामें थे, प्रचुर चित्रोंवाली इस नगरीमें चित्रों में शुक्ल, नील आदि समस्त वर्ण (रङ्ग) ठीक स्थानमें थे। मनुष्य आदिके मुखोंके शब्दोंवाली जो नगरी स्वरोंके भेदको प्राप्त करती थी तथा बहुत मुखोंवालों (चतुर्मुख ब्रह्मा, पञ्चमुख-महादेव और षण्मुखकार्तिकेय ) के शब्दोंको प्राप्त करनेवाली जो नगरी ( स्वः अभेदम् ) स्वर्गसे अभेदको प्राप्त करती थी अर्थात् जैसे स्वर्ग में चतुर्मुख, पञ्चमुख और षण्मुखके शब्द है, वैसे ही यहाँपर बहुत मुखोंके शब्द हैं, यह तात्पर्य है / इस पद्यमें पूर्वार्द्धमें अपत्ति, शब्दश्लेष और प्रकृतिश्लेषका एकाश्रयाऽनुप्रवेशरूप सङ्कर और उत्तरार्द्धमें भी वैसा ही सङ्कर है / समुदायमें संसृष्टि अलङ्कार है / / 98 // स्वरवाऽणया पताकया दिनमर्केण समीयुषोत्तषः / लिलिहुबहुधा सुधाकर निशिमाणिस्यमया यदायाः // 66 // . अन्वयः-माणिक्यमया यदालयाः दिनं समीयुषा अर्केण उत्तषः ( सन्तः) निशि स्वरुचा अरुणया पताकया सुधाकरं बहुधा लिलिहुः // 99 // ग्याल्या-माणिक्यमया:=परागरत्ननिर्मिताः, यदालया=कुण्डिन. नगरीगृहाः, दिनं दिवसं व्याप्य, समीयुषा सङ्गतेन, अर्केण = सूर्येण हेतुना, उत्तषःउत्पन्नपिपासाः सन्तः, सूर्यकिरणसम्पर्कादिति शेषः / निशि-रात्री, स्वरुवा=आलयप्रभया, अरुणया रक्तवर्णया, पताकया=वैजयन्या,
SR No.032779
Book TitleNaishadhiya Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSheshraj Sharma
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year
Total Pages1098
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy