________________ द्वितीया सर्ग: 89 अनुवाद-जिस कुण्डिननगरीमें मुख, हाथों, चरणों और नेत्रोंमें कमलोंसे और मुख आदिसे अतिरिक्त और अङ्गोंमें चम्पक पुष्पोंसे बनायी गयी दमयन्ती, कामदेवकी पूजाके फूलोंकी मालाको स्वयं ( खुद ) ग्रहण करती थीं // 96 // टिप्पणी-मुखपाणिपदाक्षिण = मुखं च पाणी च पदे च अक्षिणी च मुखपाणिपदाऽक्षि, तस्मिन् / "द्वन्द्वश्च प्राणितूर्यसेनाऽङ्गानाम्" इस सूत्रसे समाहार द्वन्द्व / "पदाऽङ्गाऽधिकारे तस्य च तदन्तस्य च" इससे तदन्तविधिकी अनुज्ञासे अल्लोप / भीमजा= भीमाज्जाता, भीम+जन्+ड+टाप ( उपपद०)। तेषां सक्, तस्याः (10 त० ) / आदित=आङ्-उपसर्गपूर्वक "डुदान् दाने" रिच्च" इससे इत्व और "ह्रस्वादङ्गात्" इससे सिच्का लोप / जिस कुण्डिननगरीमें मुख में श्वेत कमलसे, हाथोंमें और चरणोंमें रक्त कमलोंसे तथा नेत्रों में नीलकमलोंसे एवं मुख आदिसे भिन्न अङ्गोंमें चम्पक पुष्पोंसे बनायी गयी दमयन्ती, कामदेवकी पूजामें फूलोंकी मालाकी शोभा प्राप्त करती थी अर्थात् दमयन्तीके मुख, हाथ, चरण और नेत्र कमलके समान तथा उनसे भिन्न अङ्ग चम्पक पुष्पोंके समान थे, यह तात्पर्य है। इस पद्यमें कमलों और चम्पकपुष्पोंसे दमयन्तीके मुखादि अङ्गोंकी रचनाके असम्बन्धमें भी सम्बन्धकी उक्ति होनेसे अतिशयोक्ति और एककी शोभाका दूसरेसे ग्रहणके असंभव होनेसे सादृश्यका आक्षेप होकर निदर्शना, इस प्रकार दो अलङ्कारोंका अङ्गाङ्गिभाव होनेसे जघनस्तनभारगौरवाद्वियवालम्ग्य विहर्तमक्षमाः। ध्यमप्सरसोऽवतीय यां शतमध्यासत तत्सखीजनः // 7 // 1 अन्वयः-जघनस्तनभारगौरवात वियत् आलम्ब्य विहर्तम् अक्षमाः शतम् अप्सरसः अवतीर्य तत्सखीजनः याम् अध्यासत ध्रुवम् // 97 // व्याख्या-जघनस्तनभारगौरवात् =नितम्बकुचभरगुरुत्वात् हेतोः, वियत् -आकाशम्, आलम्ब्य=आश्रित्य, विहर्तु= क्रीडितुम्, अक्षमाः=असमर्थाः, शत-बहुसंख्यकाः, अप्सरसः- स्वर्वेश्या उर्वश्यादय इति भावः / अवतीर्य= विवरण, स्वर्गादागत्येति भावः / तत्सखीजनः = दमयन्तीवयस्यागणः, दमयन्तीसंख्यः सत्यः, यां=कुण्डिननगरीम, अध्यासत=अध्यतिष्ठन्, ध्र वं-सम्भावनामाम् / अप्सरःसदृश्यो दमयन्तीसख्यो दमयन्तीमुपासत इति भावः // 9 //