________________ द्वितीयः सर्गः // "षिद्गौरादिभ्यश्च" इससे ङीष् / पतिव्रताया औचिती (10 त०)। पतिव्रता का लक्षण है-"आर्ताऽऽर्ते, मुदिते हृष्टा, प्रोषिते मलिना कृशा। मृते म्रियेत या पत्यो सा स्त्री ज्ञेया पतिव्रता।" (या० स्मृ.) / मुमुचे= "मुच्ल मोक्षणे" धातुसे कर्ममें लङ+त / इस पद्यमें कुण्डिनपुर में बड़े-बड़े भवन हैं, उनमें अटारियां आकाशके समान ऊंची हैं, वहांपर फर्शमें चन्द्रकान्त मणि जड़े हुए हैं, चन्द्र के उगनेपर उनकी किरणों के सम्पर्कसे चन्द्रकान्तके पिघलनेसे पानी निकलता है, वही आकाशगङ्गा है / चन्द्रोदय होनेपर जैसे आकाशगङ्गाके पति समुद्रके जलकी वृद्धि होती है, वैसे ही पत्नी आकाशगङ्गामें भी पतिव्रताधर्मके पालनके कारण जलकी वृद्धि होती है, यह तात्पर्य है / इस पद्यमें चन्द्रकान्तसे पिघले हुए जलसे आकाशगङ्गामें जलवृद्धिका सम्बन्ध न होनेपर भी उसकी उक्ति होनेसे अतिशयोक्ति और समृद्धिविशिष्ट वस्तुका वर्णन होनेसे उदात्त अलङ्कार है, उन दोनोंके अङ्गाङ्गिभावसे सङ्कर है और अतिशयोक्तिसे कुण्डिननगरी के गृहोंका औन्नत्य व्यक्त होता है / इस प्रकार अलङ्कारसे वस्तुध्वनि है // 89. // रुचयोऽस्तमितस्य भास्वतः स्थलिता यत्र निरालयाः खल। . अनुसायमभुविलेपनाऽऽपणकश्मीरजपण्यवीथयः // 30 // अन्वयः-यत्र अनुसायं विलेपनाऽऽपणकश्मीरजपण्यवीथयः अस्तम् इतस्य भास्वतः स्खलिताः निरालया रुचयः अभुः खल // 9 // व्याख्या-यत्र कुण्डिननगर्याम्, अनुसायं-प्रतिसन्ध्याकालं, विलेपनाऽऽपणकश्मीरजपण्यवीथय:-विलेपनापणेषु-सुगन्धद्रव्यनिषद्यासु, कश्मीरजपण्यवीथयः कुकुमरूपविक्रेयवस्तुश्रेणयः, अस्तम् अस्तपर्वतम्, इतस्य गतस्य, भास्वत:=सूर्यस्य, स्खलिताः- च्युताः, अत एव निरालयाः=निराश्रयाः, उचयःप्रभाः, अभुः=भान्तिं स्म, खलु-निश्चयेन // 90 // : अनुवाद-जिस कुण्डिननगरीमें प्रति सायङ्कालको सुगन्धद्रव्योंकी दूकानों पर केशररूप विक्रेयपदार्थोकी राशियां अस्ताचलको गये हुए सूर्यको च्युत तथा बाश्रयहीन प्रभाओंके समान शोभित होती थी // 90 // , टिप्पणी-अनुसायं-सायं सायम् (वीप्सामें अव्ययीभाव ) / विलेपनाऽऽ पणकश्मीरजपण्यवीथयः=विलेपनानाम् आपणाः (10 त०), "आपणस्तु निषधायाम्" इत्यमरः / कश्मीरेषु जातानि कश्मीरजानि, कश्मीर+जन्+ पणितूं योग्यानि पण्यानि, "पण व्यवहारे स्तुती च" धातुसे "अवधपण्य. अगिहापणितव्यानिरोधेषु" इस सूत्रसे यत्प्रत्ययान्त निपातन / कश्मीरजानि