________________ द्वितीयः सर्गः 75 वि-उपसर्गपूर्वक "तृ प्लवनसन्तरणयोः" इस धातुसे लङ् +झि / इस पद्यमें सूर्यके घोड़ोंके दण्डसे ताडनका सम्बन्ध न होनेपर भी सम्बन्धकी उक्तिसे अति. शयोक्ति अलङ्कार है, उससे कुण्डिनपुरी के गृहोंकी सूर्यमण्डलतक ऊंचाई व्यक्त होती है, इस प्रकार अलङ्कारसे वस्तुध्वनि है // 80 // क्षितिगर्भधराऽधराऽऽलयस्तलमध्योपरिपूरिणां पृथक् / जगतां खल याखिलाऽभुताऽजनि सारनिचिह्नधारिभिः // 81 // अन्वयः- तलमध्योपरिपूरिणां जगतां पृथक् निजचिह्नधारिभिः सारैः क्षितिगर्भधराऽम्बराऽऽलयः या अखिला अद्भुता अजनि खलु // 81 // व्याख्या-तलमध्योपरिपूरिणां= अधोमध्योर्ध्वपूरकाणां, पातालभूमिस्वर्गाणामित्यर्थः / जगतां=लोकानां, पृथक असङ्कीर्णा, निजचिह्नधारिभिः= स्वलक्षणधारकः, सारः=उत्कृष्टः, अंशः क्षितिगर्भधराम्बराऽऽलयः = पातालभूम्याकाशगृहैः, या=कुण्डिनपुरी, अखिला=समस्ता, अद्भुता=चित्रा, अजनि=जाता / / 81 // अनुवाद-अधोभाग, मध्यभाग और ऊर्वभागको पूर्ण करनेवाले पाताल, भूमि और स्वर्ग इन तीनों लोकोंके भिन्न-भिन्न अपने चिह्नोंको धारण करनेवाले उत्कृष्ट पाताल, भूमि और आकाशमें स्थित भवनोंसे जो ( कुण्डिनपुरी ) पूर्णरूपसे अद्भुत ( अनूठी ) हो गई / / 81 // टिप्पणी-तलमध्योपरिपूरिणांतलं च मध्यं च उपरि च ( द्वन्द्वः ), तलमध्योपरि पूरयन्तीति तच्छीलानि तलमध्योपरिपूरीणि, तेषाम्, तलमध्योपरि+पूर+णिनि ( उपपद० ) + आम् / निजचिह्नधारिभिः=निजं च तत् चिह्न (क० धा० ), तत् धारयन्तीति तच्छीलाः निजचिह्नधारिणः, तैः, निजचिह्न++णिनि ( उपपद०.)+भिस् / पाताल यानी भूगर्भ (तहखाना ), उसका चिह्न-निधि ( खजाना ) आदि / धरापृथिवी, उसका चिह्नधान्य आदि, आकाश-ऊर्ध्वलोक-ऊँची मञ्जिलवाले भवन, उनके चिह्न-फूल चन्दन आदि भोगके उपकरण / इनको धारण करनेवाले यह तात्पर्य है। मितिगर्भधराऽम्बराऽऽलयः=क्षितेर्गर्भः (10 त०), क्षितिगर्भ कहनेसे पाताल यानी तहखाना। क्षितिगर्भश्च धरा च अम्बरंच (द्वन्द्वः ), तेषु मालयः ( स० त०)। तिमञ्जिले गृहोंसे युक्त जो कुण्डिनपुरी आश्चर्यमयी थी, यह तात्पर्य है। अजनि - "जनी प्रादुर्भावे" धातुसे लु+त, "दीपजनबुधपूरिसायिप्यायिभ्योऽन्यतरस्याम्" इस सूत्रसे छिलके स्थानमें घिण्, "चिणो लुक्" इस