________________ .. द्वितीयः सर्गः गृहस्वरूप निर्मल ( शुक्ल ) अभ्यन्तरस्मित अनिर्वाच्य प्रकाशका दर्शन करती थी // 78 // टिप्पणी-क्षणनीरवया=निर्गतो रवो यस्याः सा नीरवा ( बहु० ), क्षणं नीरवा (सुप्सुपा०) तया / श्रितवप्राऽऽवलियोगपट्टया=वप्राणाम् आवलिः (प० त०), "प्राकारो वरणो वप्रः" इत्यमरः / योगस्य पट्टः (10 त० ) वप्राऽऽवलिः, योगपट्ट इव, "उपमितं व्याघ्रादिभिः सामान्याऽप्रयोगे" इससे उपमितकर्मधारय / श्रितो वप्राऽऽवलियोगपट्टो यया, तया ( बहु ) / यह नगरी वचनैः" इससे समास / श्रितो वप्रावलियोगपट्टो यया, तया ( बहु० ) / मणिवेश्ममयं=मणीनां वेश्म (प० त०), तत् स्वरूपं यस्य तत् (मणिवेश्म+मयट्) निर्मलं = निर्गतं मलं यस्मात्तत् ( बहु० ) / ज्योतिः प्रभा ( नगरीपक्षमें ), बात्मज्योतिः ( योगिनीपक्षमें ) / ईक्ष्यते स्म = ईक्ष+ लट् ( कर्ममें ) त / "इज्यते स्म" ऐसे पाठान्तरमें यज+लट् ( कर्ममें ) / इस पद्यमें प्रस्तुत नगरी विशेषणके साम्यसे अप्रस्तुत योगिनीकी प्रतीति होनेसे समासोक्ति अलङ्कार है // 78 // विललास जलाशयोदरे क्वचन द्यौरनुबिम्बितेव या। परिखाकपटस्फुटस्फुरत्प्रतिबिम्बाऽनवलम्बिताऽम्बुनि // 76 // अन्वयः-या परिखाकपटस्फुटस्फुरत्प्रतिबिम्बाऽनवलम्बिताऽम्बुनि क्वचन जलाशयोदरे अनुबिम्बिता द्यौः इव विललास // 79 // - व्याख्या-या=नगरी, परिखाकपटस्फुटस्फुरत्प्रतिबिम्बऽनवलम्बिताऽम्बुनि '=खेयच्छलव्यक्तसञ्चलत्प्रतिमाऽसम्बद्धजले, क्वचन=कुत्रचन, जलाशयोदरेहृदमध्ये, अनुबिम्बिता=प्रतिबिम्बिता, द्यौः इव= अमरावती इव, विललास =शुशुभे // 79 // . अनुवाद-जो ( नगरी ) खाईके बहानेसे स्पष्ट चलनेवाले प्रतिबिम्बसे जहाँ बीचका जल नहीं दिखाई देता है, ऐसे किसी सरोवरके बीच में प्रतिबिम्बित अमरावतीकी तरह शोभित होती थी // 79 // टिप्पणी-परिखाकपटेत्यादिः०-परितः खन्यते इति परिखा, परि-उपसर्ग पूर्वक "खनु अवदारणे" इस धातुसे "अन्येभ्योऽपि दृश्यते" इससे ड प्रत्यय / "खेयं तु परिखा" इत्यमरः / परिखायाः कपटः (ष० त०), स्फुरच्च तत् प्रतिबिम्बम्