________________ द्वितीयः सर्गः विनेति शेषः / दमयन्तीयोगे तु भवद्रूपं भूमिः उद्यानं च सर्व सफलमिति भावः // 45 // अनुवाद-(हे वीर ! ) आपका यह सौन्दर्य, दमयन्तीके न होनेपर बन्ध्य ( निष्फल ) वृक्षके फूलके समान निरर्थक है / धनसे पूर्ण यह पृथिवी व्यर्थप्राय है, उसी प्रकार कोकिलके आलापसे सम्पन्न आपका उद्यान भी निरर्थक है // 45 // टिप्पणी-तया= "विना" पदके योगमें "पृथग्विनानाभिस्तृतीयाऽन्यतरस्याम्" इस सूत्रसे तृतीया, एक पक्षमें पञ्चमी और द्वितीया विभक्ति भी होती है / अवकेशिनः= 'बन्ध्योऽफलोऽवकेशी च" इत्यमरः / विफलं =विगतं फलं यस्मात् तत् ( बहु० ) / ऋद्धधना=ऋद्धं धनं यस्यां सा ( बहु० ) / अवनी="कृदिकारादक्तिनः" इससे 'अवनि' शब्दसे छीप् / वृथा=यह अव्यय है / सम्प्रवदपिका सम्प्रवदन्तः पिका यस्यां सा ( बहु०)। स्ववनी= अल्पं वनं वनी, 'वन' शब्दसे अवयवके अपचयकी विवक्षामें 'षिद्गौरादिभ्यश्च' इस सूत्रसे गौर आदि गणमें पढ़े जानेसे ङीष् स्वस्य वनी ( 10 त०)। का= "कि वितर्के परिप्रश्ने क्षेपे निन्दाऽपराधयोः" इति विश्वः / इस पद्यमें पूर्वार्द्ध में पूर्णोपमा अलङ्कार है, तृतीय और चतुर्थ चरणमें दमयन्तीके बिना अवनी और स्ववनीकी असुन्दरताका प्रतिपादन होनेसे दो विनोक्तियाँ, इस प्रकार इन अलङ्कारोंकी निरपेक्षतासे संसृष्टि है / विनोक्तिका लक्षण है "विनोक्तिर्य द्विनाऽन्येन नाऽसाध्वन्यदसाधु वा / " 10-73 // 45 // . अनयाऽमरकाम्यमानया सह योगः सुलभस्तु न त्वया / धनसंवृतयाऽम्बुदागमे कुमुदेनेव निशाकरत्विषा // 46 // अन्वयः-अमरकाम्यमानया. अनया सह योगः अम्बुदागमे धनसंवतयानिशाकरत्विषा सह योगः कुमुदेन इव त्वया न सुलभः // 46 // .. व्याल्या-अथ स्वाऽपेक्षां दर्शयितुं दमयन्त्या दौर्लभ्यं द्योतयति-अनयेति / अमरकाम्यमानया=देवाऽभिलष्यमाणया, अनया सह=दमयन्त्या समं, योगः=सम्बन्धः, अम्बुदागमे=मेघागमे, वर्षाकाल इति भावः / घनसंवृतता=मेघाच्छन्नया, निशाकरत्विषा सह-चन्द्रकान्त्या समं, योगः-सम्बन्धः, कुमुदेन इव=कैरवेण इव, त्वया भवता, न सुलभः- न सुप्रापः, दुर्लभ इति भावः / अतोऽहं भैमीसकाशं गत्वा वाक्कौशलेनाऽनुरागमुत्पाद्य तया सह भवतो योग जनयिष्यामीति तात्पर्यम् // 46 //