________________ 28 नैषधीयचरितं महाकाव्यम् नानाम् अपि, सरोरुहां=कमलानां, श्रियः=शोभाः, सम्पदश्च, करलीलया हस्तविलासेन, बलिग्रहणेन च, गृहयालुः=ग्रहणशीला, सा=दमयन्ती, तव= भवतः, परम् = अत्यर्थं, सदृशी तुल्या, दमयन्न्या भुजो मृणालादपि कोमली, दमयन्त्याः पाणिः कमलादपि मनोहर इति भावः / / 29 // ___ अनुवाब-हे वीर ! जलरूप किले में रहनेवाले कमलको जीतनेवाली बांहोंवाली वह (दमयन्ती) सूर्यकी सेवा करनेवाले वा मित्रसहायसे सम्पन्न कमलों. की शोभा वा सम्पत्तियोंको हाथके विलाससे वा करग्रहणके रूप में लेनेवाली, आपके लिए अत्यन्त योग्य है // 29 // - टिप्पणी-शूरः- "शूरो वीरश्च विक्रान्तः" इत्यमरः / जलदुर्गस्थमृणालजिद्भुजा=जलम् एव दुर्गः ( रूपक० ); तस्मिन् तिष्ठन्तीति जलदुर्गस्थानि, . जलदुर्ग+स्था+कः ( उपपद० ), तानि च तानि मृणालानि ( क० धा...), तानि जयत इति जलदुर्गस्थमृणालजिती, जलदुर्गस्थमृणाल + जि + क्विप् / तादृशी भुजी यस्याः सा ( बहु०), मित्रजुषां= मित्रं जुषन्त इति मित्रजूंषि तेषाम्, मित्र+जुष् + क्विप् / मित्र पदका अर्थ यहाँपर सूर्य और सुहृद् है / "मित्रं सुहृदि, मित्रोऽर्कः" इति विश्वः / सरोरुहांसरसि रोहन्तीति सरोसंहि, तेषां, सरस्+रह+क्विप् ( उपपद०)+आम् / श्रियः="श्रीलक्ष्मीवेशसम्पत्सु भारतीशोभयोरपि" इति त्रिकाण्डशेषः / “गृहयालुः" इस कृदन्तपदके योगमें "कर्तृकर्मणोः कृतिः" इससे प्राप्त षष्ठीका "न लोकाऽव्यनिष्ठाखलर्थतनाम्" इससे निषेध होनेसे कर्ममें द्वितीया / करलीलया करयोः अथवा कराणां लीला, तया (ष० त०), "बलिहस्तांऽशवः कराः" इति "लीला विलासक्रिययोः" इति चामरः / गृहयालुः = गृहयते इति, "गृह ग्रहणे" इस चौरादिक धातुसे "स्पृहिगृहिपतिदयिनिद्रातन्द्राश्रद्धाभ्य आलुच्" इस सूत्रसे आलूच प्रत्यय / "गृहयालहीतरि" इत्यमरः / जो जलरूप किलेमें रहनेवाले मृणालोंको भी अपने बाहुसे जीतती हैं और जो सूर्यका अथवा मित्र का आश्रय लेनेवाले कमलोंकी शोभा वा सम्पत्तिको भी अपने हाथोंके विलाससे अथवा करके रूप मेंसे ग्रहण करती है- ऐसी वीर नारी आप जैसे वीरके लिए बहुत ही योग्य है-यह तात्पर्य है। इस पद्यमें दमयन्ती और नलरूप योग्य व्यक्तियों की अनुरूपतासे श्लाघा होनेसे "सम" अलङ्कार है, जैसे कि "समं स्यादानुरूप्येण श्लाघा या योग्यवस्तुनोः।" सा० टि० 10-12 / मित्र, कर, लीला और श्री का सूर्य, बलि, क्रिया और सम्पत्तिसे भेद होनेपर भी श्लेषसे अभेदका