________________ // कामयोः बाणप्रहाराऽथिनोः, रतिपञ्चबाणयोः रतिकामदेवयोः, नलिके न= शराऽऽधारनलो न? अपि तु नलिके एवेति भावः / दमयन्त्या भ्रूनासिकं दृष्ट्वा सर्वोऽपि कामवशो भवतीति तात्पर्यम् // 28 // अनुवाद-दमयन्तीकी भौंहें जगत्को जीतनेके लिए उत्पन्न रति और कामदेवके धनुष हैं क्या ? उसकी ऊंची नासिकाके दो छिद्र आपमें बाण छोड़नेकी इच्छा करने वाले रति और कामदेवकी नलिया तो नहीं है // 28 // . टिप्पणी-तद्धृवीतस्या ध्रुवौ (ष० त०)। विश्वजयाय=विश्वस्य जयः, तस्मै (ष० त०), "तुमर्थाच्च भाववचनात्" इससे चतुर्थी / उदिते= 'उद् + इण् +क्त+ङि / रतिपञ्चबाणयोः पञ्च बाणा यस्य सः (बहु०)। पांच बाण होनेके कारण कामदेवको "पञ्चबाण" वा "पञ्चशर" कहते हैं, पांच बाण जैसे "अरविन्दमशोकं च चूतं च नवमल्लिका। . नीलोत्पलं च पञ्चैते पञ्चबाणस्य सायकाः // " अर्थात् कमल, अशोक पुष्प, आमका फूल, नवमल्लिका और नीलकमलये पांच प्रकार के पुष्प कामदेव के बाण हैं। रतिश्च पञ्चबाणश्च रतिपञ्चबाणी, तयोः (द्वन्द्व०)। तदुच्चनासिके =उच्चे च ते नासिके (क० धा०) / नासिकाके छिद्रोंके द्वित्त्वसे नासिकामें द्विवचन किया गया है। तस्या उच्चनासिके (प. त०.) त्वयि=विषयमें सप्तमी। नालीकविमुक्तिकामयोः विमुक्ति कामयेते इति विमुक्तिकामी, विमुक्ति-उपपदपूर्वक "कमु कान्ती" धातुसे "शीलिकामिभक्ष्याचरिभ्यो णः" इस सूत्रसे ण प्रत्यय ( उपपद०)। नालीकानां विमुक्तिकामी, तयोः (प० त०)। "नालीकं पद्मखण्डे स्त्री, नालीकः शरशल्ययोः / " इति विश्वः / यहाँपर भ्रूयुग्ममें धनुर्युग्मका आरोप होनेसे पूर्वार्द्ध में रूपक और उत्तरार्द्ध में नलिकामें नासिकात्वकी संभावना करनेसे उत्प्रेक्षा, इस प्रकार दो सदृशी तव शूर ! सा परं जलदुर्गस्थमृणालजिभुजा। अपि मित्रजुषां सरोव्हां गृहयालः करलीलया श्रियः // 26 // . अन्वयः-हे शूर ! जलदुर्गस्थमृणाल जिद्भुजा मित्रजुषाम् अपि सरोरुहां श्रियः करलीलया गृहयालुः स तव परं सदृशी॥ 29 // . . ___याख्या-हे शूर हे वीर !, जलदुर्गस्थमृणालजिद्भुजा=सलिलदुर्गस्थ. विसजयिबाहुः, सा=दमयन्ती, मित्रजुषाम् अपि-अर्कसेविना, सुहत्सहायसम्प