________________ नैषधीयचरितं महाकाव्यम् बिलं=विहिताऽन्तरच्छिद्रं, सत्, धृमगम्भीरखनीखनीलिम=धृतगभीरनिम्नमर्ताकाशनल्यं, विलोक्यते-दृश्यते / ब्रह्मणा दमयन्त्या मुखं निर्मातुं चन्द्र. बिम्बात्सुन्दरभागो गृहीतः, अतो गृहीतसुन्दरभागे चन्द्रबिम्बे छिद्रं सजातं तत्राऽऽकाशस्य नीलिमा पतितः स एव चन्द्रस्य कलङ्क इति भावः / चन्द्रः सकलङ्कः, दमयन्त्या मुखं निष्कलङ्कः / तस्माद्धेतोश्चन्द्रापेक्षया दमयन्तीवदनं मनोहरतरमिति भावः / / 25 // अनुवाद- ब्रह्माजीने दमयन्तीके मुखकी रचनाके लिए चन्द्रमण्डलसे श्रेष्ठ भागको हरण कर लिया / अतः उसमें (बीचमें ) छेद पड़ गया। उसपर जो आकाशकी नीलिमा है वही कलङ्कके रूप में दिखाई दे रही है // 25 // टिप्पणी-इन्दुमण्डलम् = इन्दोः मण्डलम् (प० त०)। दमयन्तीवदनाय = दमयन्त्या वदनं, तस्मै (ष० त० ), "क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः" इससे चतुर्थी / हृतसारं-हृतः सारो यस्मात् तत् ( बहु• ) / कृतमध्यबिलं= मध्ये बिलम् ( स० त०), कृतं मध्यबिलं यस्य तत् ( बहु० ) / धृतगम्भीरखनीखनीलिम=गम्भीरा चाऽसौ खनी ( क० धा० ), "खनिः स्त्रियामाकरः स्यात्" इत्यमरः / “कृदिकारादक्तिनः' इस सूत्रसे ङीष प्रत्यय होकर ईकारान्त भी खनी शब्द हो जाता है / यहाँपर खनीका प्रसिद्ध अर्थ खान न होकर गर्त होता है। नीलस्य भावो नीलिमा, नील+इमनिच, खस्य नीलिमा (प० त०), गम्भीरखन्यां खनीलिमा ( स० त० ), 'धृतो गम्भीरखनीसनीलिमा येन तत् ( बहु०.) / ब्रह्माजीने चन्द्रबिम्बस्थ उत्कृष्ट भाग तो दमयन्ती का मुख बनानेके लिए निकाल लिया / तब उसके निम्न गर्तमें आकाशकी जो नीलिमा पड़ गई वही कलङ्कके रूपमें प्रसिद्ध है। चन्द्रमा में कलङ्क है दमयन्तीका मुख निष्कलङ्क होनेसे उससे उत्कृष्ट है यह तात्पर्य है / विलोक्यते=वि+लोक + लट् ( कर्ममें )+त। इस पद्यमें कलङ्कका अपह्नव करके आकाशकी नीलिमाका आरोप करनेसे अपह्नुति, 'कृतमध्यबिल' यहाँपर पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग, 'हृतसारम् इव' यहाँपर उत्प्रेक्षा, इस तरह अङ्गाङ्गिः भावसे सङ्कर / आकाश रूपरहित द्रव्य है। अतः उसमें महाकविने लोकप्रसिद्धि के अनुसार नीलिमाका वर्णन किया है // 25 // धृतलाञ्छनगोमयाऽधान विधुमालेपनपाखरं विधिः / भ्रमयत्युचितं विवर्मजाऽऽनननीराजनवर्तमानकम् // 26 //