________________ द्वितीयः सर्ग: 25 अन्वयः-विधि धृतलाञ्छनगोमयाञ्चनम् आलेपनपाण्डरं विधुं विदर्भजाऽऽनननीराजनवर्द्धमानकं भ्रमयति, उचितम् // 26 // व्याख्या-विधिः=ब्रह्मा, धृतलाञ्छनगोमयाऽञ्चनं गृहीतमृगचिह्नगोमयसंश्लेषणम्, मालेपनपाण्डरं-पिष्टोदकशुक्लवर्ण, तत्सदृशनिजकान्तिसुधाधवलितं, विधुं= चन्द्रमसं, विदर्भजाऽऽनननीराजनवर्द्धमानक-दमयन्तीमुखारातिकशरावं, किरणदीपकलिकायुक्तमिति भावः। भ्रमयति= भ्रमणं कारयति, उचितंयोग्यम्, लोकोत्तरत्वादिति भावः / एवं नीराजयन्तीति देशाऽऽचारः // 26 // __ अनुधाद- ब्रह्माजी गोमयके सदृश, कलङ्कसे युक्त और पिष्टजलके समान सफेद चन्द्रमाको दमयन्तीके मुखकी आरती उतारनेके लिए मृत्तिकापात्रके समान जो घुमाते हैं, वह उचित है // 26 // टिप्पणी-धृतलाञ्छनगोमयाऽञ्चनं गोः पुरीषं गोमयं, 'गो' शब्दसे 'गोश्च पुरीषे' इस सूत्र से मयट् प्रत्यय / गोमयेन अञ्चनम् (तृ० त०) / धृतं लाञ्छनम् एव गोमयाऽञ्चनं येन, तम् ( बहु० ) / आलेपनपाण्डरम् =आलेपनेन पाण्डरः, तम् (तृ० त०)। विg="विधुः सुधांशुः शुभ्रांऽशुः" इत्यमरः / विदर्भजाऽऽनननीराजनवर्द्धमानक - विदर्भजाया आननम् ( 10 त०), तस्य नीराजनं -(प० त०), तस्य वर्द्धमानकं, तत् (10 त०)। "शरावो वर्द्धमानकः" इत्यमरः / भ्रमयति=भ्रम + णिच +लट+तिप् / "मितां ह्रस्वः" इससे ह्रस्व हुआ है / जैसे लोकमें नीराजना करनेके लिए और दृष्टदोषको हटानेके लिए गोबर और पिष्टजलसे लेप करके वर्द्धमान (मिट्टीके पात्र) को घुमाते हैं; उसी तरह ब्रह्माजी दमयन्तीके मुखमें नीराजन करनेके लिए गोबरके समान कलङ्कसे युक्त और षिष्टजलके समान अपनी किरणसे सफेद चन्द्ररूप वर्धमान (मृतिकापात्र ) को घुमाते हैं / चन्द्रमासे दमयन्तीका मुख सुन्दर है, यह तात्पर्य हैं। इस पद्य में साङ्गरूपक और चन्द्रमाके भ्रमणका सम्बन्ध न होनेपर भी सम्बन्धका वर्णनकरनेसे अतिशयोक्ति है। इस प्रकार दो अलङ्कारोंका अङ्गाङ्गिभावरूप सङ्कर अलङ्कार है // 26 // सुषमाविषये परीक्षणे निखिलं पचममाजि तन्मुखात् / मधुनाऽपि न मङ्गलक्षणं सलिलोन्मजनमुमति स्फुटम् // 27 // अन्वयः-सुषमाविषये परीक्षणे निखिलं पचं तन्मुखात् अभाजि, (अत एव ) अधुना अपि भङ्गलक्षणं सलिलोन्मज्जनं न उज्मति स्फुटम् // 27 // प्याल्या-सुषमाविषये परमशोभाविषये, परीक्षणे परीक्षायां, जल