________________ नषषीयक्षरित महाकाव्यम् टिप्पणी-द्विजः= द्विर्जायते इति, द्वि+जन्+डः। "दन्तविप्राण्डजा द्विजाः" इत्यमरः / जगत्यधीश्वरात्=जगत्या अधीश्वरः, तस्मात् (10 त०) "अथ जगती लोको विष्टपं भुवनं जगत् / " इत्यमरः / पुरुषोत्तमात् = पुरुषेषु उत्तमः तस्माद, ( स० त० ), यद्यपि निर्धारणमें "यतश्च निर्धारणम्" इस सूत्रसे षष्ठी और सप्तमी दोनों विभक्तियां होती हैं, तथापि 'न निर्धारणे' इस सूत्रसे निर्धारणमें षष्ठीका समास नहीं होता। मुक्ति = मुच्+क्तिन् / आत्यन्तिक दुःखनिवृत्तिको मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण या अपवर्ग कहते हैं / वेदान्तके अनुसार स्व(ब्रह्म)-स्वरूपके ज्ञानसे मुक्तिकी प्राप्ति होती है, "तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नाऽन्यः पन्था विद्यतेऽयनाय" “यतो वाचो निवर्तन्ते" (तैत्ति० 2 / 4 "आनन्दं ब्रह्मणो रूपम्" इत्यादि प्रमाण हैं / अधिगत्य - अधि+ गम्+क्त्वा (ल्यप्) / अविन्दत="विद्ल लाभे" धातुसे क्रियाफल कर्तृगामी होनेसे आत्मनेपदमें लङ, "शे मुचादीनाम्" इससे नुम् आगम। इस पद्यमें द्वितीय अर्थके प्रस्तुत न होनेसे श्लेष नहीं है, "द्विजो ब्राह्मण इव" द्विज ब्राह्मणके समान कहनेसे उपमा व्यङ्गय है / इस प्रकार शब्दार्थशक्तिमूल अलङ्कार ध्वनि है। इस सर्गमें सौ श्लोकों तक वियोगिनी नामक अर्द्धसमवृत्त है, उसका लक्षण है"विषमे ससजा गुरुः समे, सभरा लोऽथ गुरुवियोगिनी" // 1 // अधुनीत खगः स नेकधा तनुमुत्फुल्लतनूव्हीकृताम् / करयन्त्रणदन्तराऽन्तरे व्यलिखच्चञ्चुपटेन पक्षती // 2 // अन्वयः-स खगः उत्फुल्लतनूरुहीकृतां तनुं नकधा अधुनीत, करयन्त्रणदन्तु. राऽन्तरे पक्षती चञ्चुपुटेन व्यलिखत् // 2 // व्याल्या-सः=पूर्वोक्तः, खगः=पक्षी, हंस इत्यर्थः। उत्फुल्लतनूरुहीकृतां =सम्फुल्लपतत्त्रीकृतां, नलकरपीडनादिति भावः / तनुं शरीरं, नकधा= मनेकधा, अनेकप्रकारेणेत्यर्थः, अधुनीत=कम्पितवान्, करयन्त्रणदन्तुराऽन्तरे नलहस्तपीडननिम्नोन्नतमध्यप्रदेशे, पक्षती-पक्षमूले, चञ्चुपुटेन=त्रोटिपुटेन, व्यलिखत् = विलेखनेन ऋजूचकारेत्यर्थः // 2 // अनुवाद-उस पक्षी ( हंस ) ने राजाके हाथसे पकड़े जानेसे रोमाञ्चसे युक्त शरीरको अनेक प्रकारसे कम्पित किया और हाथसे पकड़नेसे ऊँच-नीच मध्यप्रदेशवाले पक्षमूलोंको चोंचकी नोंकसे सम बनाया // 2 //