________________ प्रथमा सर्गः अजितम् (तृ० त० ) तत् / चरिष्णु = चरणशीलं तत्, 'घर' धातुसे "अलकु. निराकृअजनोत्पचोत्पतोन्मदरुच्यपत्रपवृतुवृधुसहचर इष्णुच्" इससे इष्णुच् / दुर्यशः = दुष्टं यशः, तत् "कुगतिप्रादयः" इस सूत्रसे समास / केतकं = केतक्या विकारः ( पुष्पम् ) इति केतकं, तत् / 'केतकी' शब्दसे "तस्य विकारः" इस सूत्रसे अण् प्रत्यय, उसका "पुष्पमूलेषु बहुलम्" इसमे लुक् और "लुक् तद्धित. लुकि" इससे स्त्रीप्रत्ययका लुक् / ददर्श = दृश् +लिट् + तिप् / पूर्वकालमें ब्रह्मा और विष्णुके श्रेष्ठत्वके विषयमें विवाद होनेपर शिवलिङ्ग ऐसी आकाशवाणी के होनेपर ब्रह्मा ऊपर और विष्णु नीचे गये। विष्णु शिवलिङ्गका पार न पाकर लौट गये, परन्तु ब्रह्माजीने पार न पांकर भी मैंने पार पाया कहकर केतकी पुष्पकी साक्षी बनाया / तब मिथ्याभाषणके कारण शिव का उद्गम हुआ, ऐसी पौराणिक प्रसिद्धि है। इस पद्य में “अलिकतवात्" इस पदमें अलित्वका अपह्नव कर उसमें दुर्यशस्त्वका स्थापन करनेसे कैतवाऽपलुति अलङ्कार और प्रतीयमानोत्प्रेक्षा है। उन दोनोंकी संसृष्टि है / / 78 // वियोगभाजां हृदि कण्टके: कटुनिषीयसे कणिशरः स्मरेण यत् / ततो दुराकर्षतया तदन्तकृतिगोयसे मन्मथदेहवाहिना // 79 // अन्धयः-( हे केतक ! ) यत् ( त्वम् ) स्मरेण वियोगभाजां हृदि कण्टकैः कटः कणिशरः ( सन् ) निधीयसे, तदो दुराकर्षतया तदन्तकृत् ( सन् ) मन्मथदेहदाहिना विगीयसे // 79 // व्याख्या - अथ नल: कामोद्दीपकत्वात्त्रिभिः केतकमुपालभसे वियोगभाजामिति / (हे केतक ! ) यत् = यस्मात्कारणात् ( त्वम् ), स्मरेण कामदेवेन, वियोगभाजां = विरहिणां जनानां, हृदि - वक्षःस्थले, कण्टकः = निजतीक्ष्णाऽवयवः, कटुः = तीक्ष्णः, कर्णिशरः = प्रतिलोमशल्यवद्बाणः सन्, निधीयसे = निक्षिप्यसे, ततः = तस्मात्करणात, दुराकर्षतया = दुरुद्धारतया, तदन्तकृत् = वियोगिनाशकारी सन्, मन्मथदेहदाहिना = स्मरहरेण, विगीयसे = निन्द्यसे, अतएव परिहियसेऽपीति शेषः / 79 // अनुवाद हे केतकीपुष्प ! जो तुम कामदेवसे वियोगियोंके हृदयमें कांटोंसे होकर वियोगियोंका प्राण लेनेसे महादेव तुम्हारी निन्दा करते हैं // 79 //