________________ સાનસાર 507 अदृष्टार्थेऽनुधावन्तः शास्त्रदीपं विना जडाः। प्राप्नुवन्ति परं खेदं प्रस्खलन्तः पदे पदे // 5 // शुद्धोञ्छाद्यपि शास्त्राज्ञानिरपेक्षस्य नो हितम् / भौतहन्तुर्यथा तस्य पदस्पर्शनिवारणम् // 6 // अज्ञानाहिमहामन्त्रं खाच्छन्यज्वरलङ्घनम् / धर्मारामसुधाकुल्यां शास्त्रमाहुमहर्षयः // 7 // शास्त्रोक्ताचारकर्ता च शास्त्रज्ञः शास्त्रदेशकः / शाखकदृग् महायोगी प्रामोति परमं पदम् // 8 // 25 परिग्रहाष्टक न परावर्तते राशेर्वक्रतां जातु नोज्झति / परिग्रहग्रहः कोऽयं विडम्बितजगत्रयः॥१॥ परिग्रहग्रहावेशाद् दुर्भाषितरजाकिराम् / श्रूयन्ते विकृताः किं न प्रलापा लिङ्गिनामपि // 2 // यस्त्यक्त्वा तृणवद् बाह्यमान्तरं च परिग्रहम् / उदास्ते तत्पदाम्भोज पर्युपास्ते जगत्रयी // 3 // चित्तेऽन्तर्ग्रन्थगहने बहिनिम्रन्थता वृथा। त्यागात्कञ्चकमात्रस्य भुजगो न हि निर्विषः // 4 // त्यक्ते परिग्रहे साधोः प्रयाति सकलं रजः। पालित्यागे क्षणादेव सरसः सलिलं यथा // 5 // त्यक्तपुत्रकलत्रस्य मूर्खामुक्तस्य योगिनः / चिन्मात्रप्रतिबद्धस्व का पुद्गलनियत्रणा // 6 //