________________ જ્ઞાનસાર 505 22 भवोद्वेगाष्टक यस्य गम्भीरमध्यस्याज्ञानवज्रमयं तलम् / रुद्धा व्यसनशैलोषैः पन्थानो यत्र दुर्गमाः // 1 // पातालकलशा यत्र भृतास्तृष्णामहानिलैः / कषायाश्चित्तसंकल्पवेलावृद्धिं वितन्वते // 2 // स्मरौर्वाग्निर्बलत्यन्तर्यत्र स्नेहेन्धनः सदा / यो घोररोगशोकादिमत्स्यकच्छपसंकुलः // 3 // दुर्बुद्धिमत्सरद्रोहैविधुदुर्वातगर्जितैः। यत्र सांयात्रिका लोकाः पतन्त्युत्पातसंकटे // 4 // ज्ञानी तस्माद् भवाम्भोधेनित्योद्विनोऽतिदारुणात् / तस्य संतरणोपायं सर्वयत्नेन काङ्क्षति // 5 // तैलपात्रधरो यद्वत् राधावेधोद्यतो यथा / क्रियास्खनन्यचित्तः स्याद् भवभीतस्तथा मुनिः // 6 // विषं विषस्य वह्वेश्च वह्निरेव यदौषधम् / तत्सत्यं भवभीतानामुपसर्गेऽपि यन्न भीः // 7 // स्थैर्य भवभयादेव व्यवहारे मुनिव्रजेत् / स्वात्मारामसमाधौ तु तदप्यन्तर्निमजति // 8 // 23 लोकसंज्ञात्यागाष्टक प्राप्तः षष्ठं गुणस्थानं भवदुर्गाद्रिलङ्घनम् / लोकसंज्ञारतो न स्यान्मुनिर्लोकोत्तरस्थितिः // 1 // यथा चिन्तामणि दत्ते वठरो बदरीफलैः /