________________ 504 જ્ઞાનસાર या सृष्टिब्रह्मणो बाह्या बाह्यापेक्षावलम्बिनी / मुनेः परानपेक्षाऽन्तर्गुणसृष्टिः ततोऽधिका // 7 // रत्नस्त्रिभिः पवित्रा या स्रोतोभिरिव जाहवी / सिद्धयोगस्य साऽप्यर्हत्पदवी न दवीयसी // 8 // 21 कर्मविपाकचिन्तनाष्टक दुःखं प्राप्य न दीनः स्यात् सुखं प्राप्य च विस्मितः / मुनिः कर्मविपाकस्य जानन् परवशं जगत् // 1 // तैरहो कर्मवैषम्ये भूपैभिक्षाऽपि नाप्यते // 2 // जातिचातुर्यहीनोऽपि कर्मण्यभ्युदयावहे / क्षणाद् रङ्कोपि राजा स्यात् छत्रछन्नदिगन्तरः // 3 // विषमा कर्मणः सृष्टिदृष्टा करभपृष्ठवत् / जात्यादिभूतिवैषम्यात् का रतिस्तत्र योगिनः // 4 // भ्राम्यन्तेऽनन्तसंसारमहो दुष्टेन कर्मणा // 5 // अर्वाक् सर्वाऽपि सामग्री श्रान्तेव परितिष्ठति / विपाकः कर्मणः कार्यपर्यन्तमनुधावति // 6 // असावचरमावर्ते धर्म हरति पश्यतः / चरमावर्तिसाधोस्तु छलमन्विष्य हृष्यति // 7 // साम्यं बिभर्ति यः कर्मविपाकं हृदि चिन्तयन् / स एव स्याच्चिदानन्दमकरन्दमधुव्रतः / / 8 //