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________________ 501 જ્ઞાનસાર पुण्यानि प्रकटीकुर्वन् फलं किं समवाप्स्यसि // 2 // आलम्बिता हिताय स्युः परैः स्वगुणरश्मयः / अहो स्वयं गृहीतास्तु पातयन्ति भवोदधौ // 3 // उच्चखदृष्टिदोषोत्थखोत्कर्षज्वरशान्तिकम् / पूर्वपुरुषसिंहेभ्यो भृशं नीचत्वभावनम् // 4 // शरीररूपलावण्यग्रामारामधनादिभिः / उत्कर्षः परपर्यायश्चिदानन्दघनस्य कः ? // 5 // शुद्धाः प्रत्यात्मसाम्येन पर्यायाः परिभाविताः / अशुद्धाश्चापकृष्टत्वाद् नोत्कर्षाय महामुनेः // 6 // क्षोभ गच्छन् समुद्रोऽपि स्वोत्कर्षपवनेरितः / गुणौघान् बुबुदीकृत्य विनाशयसि किं मुधा ? // 7 // निरपेक्षानवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तयः / योगिनो गलितोत्कर्षापकर्षानल्पकल्पनाः // 8 // 19 तत्त्वदृष्टिअष्टक रूपे रूपवती दृष्टिदृष्ट्वा रूपं विमुह्यति / मजत्यात्मनि नीरूपे तत्वदृष्टिस्त्वरूपिणी // 1 // भ्रमवाटी बहिदृष्टिभ्रमच्छाया तदीक्षणम् / अभ्रान्तस्तत्वदृष्टिस्तु नास्यां शेते सुखाशया // 2 // ग्रामारामादि मोहाय यद् दृष्टं बाह्यया दृशा / तत्वदृष्ट्या तदेवान्तीतं वैराग्यसंपदे // 3 // बाह्यदृष्टेः सुधासारघटिता भाति सुन्दरी / तत्वदृष्टस्तु साक्षात् सा विण्मूत्रपिठरोदरी // 4 //
SR No.032774
Book TitleGyansara Ashtak ane Deshna Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherKailash Kanchan Bhavsagar Shraman Sangh Seva Trust
Publication Year
Total Pages1004
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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