________________ 500 शानसा२ आत्मन्येवात्मनः कुर्यात् यः षट्कारकसंगतिम् / क्वाविवेकज्वरस्यास्य वैषम्यं जडमजनात् // 7 // संयमास्त्रं विवेकेन शाणेनोत्तेजितं मुनेः। धृतिधारोल्बणं कर्मशत्रुच्छेदक्षमं भवेत् // 8 // 16 माध्यस्थाष्टक स्थीयतामनुपालम्भं मध्यस्थेनान्तरात्मना / . कुतर्ककर्करक्षेपैस्त्यज्यतां बालचापलम् // 1 // मनोवत्सो युक्तिगवीं मध्यस्थस्यानुधावति / तामाकर्षति पुच्छेन तुच्छाग्रहमनःकपिः // 2 // नयेषु स्वार्थसत्येषु मोघेषु परचालने / समशीलं मनो यस्य स मध्यस्थो महामुनिः // 3 // स्वस्वकर्मकृतावेशाः स्वस्वकर्मभुजो नराः / न रागं नापि च द्वेषं मध्यस्थस्तेषु गच्छति // 4 // मनः स्याद् व्यापृतं यावत् परदोषगुणग्रहे / कार्य व्यग्रं वरं तावन्मध्यस्थेनात्मभावने / / 5 / / मध्यस्थानां परं ब्रह्म प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् // 6 // स्वागमं रागमात्रेण द्वेषमात्रात् परागमम् / न श्रयामस्त्यजामो वा किन्तु मध्यस्थया दृशा // 7 // मध्यस्थया दृशा सर्वेष्वपुनर्बन्धकादिषु / चारिसंजीविनीचारन्यायादाशास्महे हितम् / / 8 //