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________________ 122 बौद्धधर्म. से उसमें आत्मा की ज़रूरत ही न रही। 'मैं' यह मायिक है। जिसके जैसे कर्म वैसा वह पुरुष होता है और मृत्यु के बाद कर्म ही रहता है, और वह कर्म संस्कार चक्र में फिरता है। पुनर्जन्म की लोकमान्य भावना में भी संसार चक्र में फिरने के लिए अमुक समय ठहराया नहीं गया था परन्तु बौद्ध सिद्धान्त तो मुक्ति के शुभ समाचार रूप था कारण कि वह संसार चक्र में छूटने की आशा देता था और उसका उपदेश ऐसा था कि जन्म जन्मांतर की प्राप्तिका क्रम अनंत नहीं। बुद्ध का उपदेश ऐसी मान्यता के अनुसार रचा गया था कि अपनी जीवित रहने की इच्छा होने से मनुष्य जीवित रहता है। परन्तु उसका अब का जीवन पूरा होने से कि 'मायिक मैं' का नाश होने से वह संसार चक्र में से बच नहीं सकता। जब तक उसे जीवन की तृष्णा रहती है तब तक उसके अस्तित्व का अंत नहीं आता, उसका कर्म उसकी मृत्यु के बाद भी स्थित रहेगा और संसार चक्र का भ्रमण हुआही करेगा। इस से जो संसार चक्र में से छूटना हो तो उसके लिए केवल तृष्णारूपी अग्नि को बुझाने की ज़रूरत है। भिन्न भिन्न तृष्णाओं को रोकने से कुछ होता नहीं कारण कि तृष्णाएं तो ज्यू की यूं बनी रहती हैं, ठीक तो यह करना है कि सुख तथा जीवन की तृष्णा को बिलकुल निर्मूल किया जाए। जिस भवस्था में तृष्णा शांत नहीं परन्तु निर्मूल हो जाती है उस निर्वाण की अवस्था को प्राप्त करने की बौद्ध उत्कंठा रखते हैं
SR No.032770
Book TitleTulnatmak Dharma Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyaratna Atmaram
PublisherJaydev Brothers
Publication Year1921
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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