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________________ 221 तुलनात्मक धर्मविचार. और नया व्यक्ति उत्पन्न होता है। और जिस कर्म से उसके जीवन का और प्रारब्ध का निर्णय हुआ है उसी कर्म का वह स्वयं क्षणिक् स्वरूप है। ___ इस प्रकार व्यक्ति का कर्म मात्र नित्य और सत्य है। अब इसका जो ऐसा अर्थ किया जावे कि यह कर्म करने वाला मात्र माथिक ' मैं ' नहीं तो हमें कोई भी कठिनाई न रहे कारण कि कई पाश्चात्य तत्वों को भी ऐसा स्पष्ट प्रगट हुआ है कि जिसके जैसे कर्म वैसे ही वह पुरुष होता है। इस पर से हम बुद्ध के अध्यात्म ज्ञान से आगे बढ़ कर उसके नैतिक नियमों की ओर जा सकते हैं कारण कि मनुष्य अच्छा और बुरा कर्म कर सकता है और वह या तो धर्म अथवा अवर्म होना चाहिए। इस प्रकार बौद्ध धर्म में नीति का विस्तार बहुत ही बढ़ा दिया गया है। कारण कि मनुष्य के अच्छे बुरे कर्म से ही केवल उसका इस जन्म का ही 'कर्म' निश्चित नहीं होता परंतु उसके भावी जन्म का भी होता है और संसार चक्र में फिरते फिरते जहां जहां मनुष्य का जन्म होगा वहां वहां इस जन्म के कर्मानुसार उसका भावी कर्म भी उसकी नीति और अनीति के नियमानुसार बनेगा ऐसा माना गया है। प्रथम से ही प्रचलित संसार चक्र की जो लोकमान्य भावना बुद्ध के देखने में आई वह केवल पुनर्जन्म में श्रद्धा के रूप में अस्तित्व रखती थी; परन्तु बुद्ध के किए गए परिवर्तन
SR No.032770
Book TitleTulnatmak Dharma Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyaratna Atmaram
PublisherJaydev Brothers
Publication Year1921
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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