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________________ तुलनात्मक धर्मविचार. किया। दुःख का रोकना और उसके साधन तो निषेधात्मक ही रहे हैं। 'निवृत्त हो' इतने में ही उनका समावेश हो जाता है। किसी भी दिन दुःख न हो ऐसा करना हो तो प्रथम दुःख की उत्पत्ति का कारण ढूंड निकालना चाहिए। दुःख मात्र जीवन की तृष्णा में से उत्पन्न होता है इस लिए इस तृष्णा का अंत होने से ही दुःख का भी अंत हो सकता है और उसी को निर्वाण कहते हैं। बुद्ध के उपदेश का सार इतना ही है। जिस प्रकार सारे महासागर में एक ही लवण रस सर्वत्र देखने में आता है वैसे ही बुद्ध के उपदेश में भी एक निर्वाण रस ही सर्वत्र व्याप्य हो रहा है। ‘सर्व दुःखमय है' ऐसा निश्चय कर के बौद्धधी अपने सिद्धान्त घड़ते हैं और ऐमा अशुभ दर्शन सर्व देशीय माना है। जीवन में दुःख तथा सुख दोनों देखे जाते हैं ऐसा मानने से वह धर्म रुकता नहीं परन्तु वह तो ऐसा सिद्धान्त बताते हैं कि जीवन मात्र ही दुःखमय है और उसमें सुख तो लेशमात्र नहीं। व्याधि वृद्धावस्था और मृत्यु यह तीन ही दुःख स्वरूप नहीं परन्तु जन्म और जीवन भी दुःख स्वरूप ही हैं। चार महासागरों का जल भी यदि मनुष्यों के अश्रुपात के साथ जब कि वह अपना जीवन व्यतीत करते हों, तुलना की जाए तो तुच्छ प्रतीत होता है क्योंकि वह अपने भाग्य में जो पड़ा है उसको रोते हैं, और जिसे वह चाहते हैं वह उनके भाग्य में ही नहीं है।
SR No.032770
Book TitleTulnatmak Dharma Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyaratna Atmaram
PublisherJaydev Brothers
Publication Year1921
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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