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________________ जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा जैसे पर्याय स्वभाव और विभाव रूप होती है, वैसे ही गुण भी स्वभाव और विभाव रूप होते हैं / जैसे जीव में केवलज्ञान आदि स्वभावगुण हैं और मतिज्ञान आदि विभावगुण हैं / शुद्ध परमाणु में जो रूप-रस आदि होते हैं, वे स्वभाव गुण हैं, व्यणुक आदि स्कन्धों में जो रूप-रस-गन्ध आदि हैं, वे विभावगुण हैं / छहों द्रव्यों में से जीव और पुद्गल द्रव्यों का परिणमन स्वभाव और विभाव रूप भी होता है / ये पर्यायें दो प्रकार की होती हैं - सहभावी पर्याय और क्रमभावी पर्याय / सहभावीपर्याय गुण को कहते हैं और क्रमभावीपर्याय पर्याय को कहते हैं / द्रव्य अपने स्वभाव से कभी च्युत नहीं होता, सदा अपने स्वभाव में स्थिर रहता है, इसलिए अस्तिस्वभाव है। अनेक पर्याय रूप परिणमनशील होने पर भी द्रव्य की द्रव्यता सदा विद्यमान रहती है, इसलिए वह नित्य स्वभाव है, किन्तु पर्याय रूप परिणमनशील होने से अनित्य स्वभाव है। नाना स्वभावों का आधार एक होने से एक स्वभाव है और एक के भी अनेक स्वभाव देखे जाने से अनेक स्वभाव हैं। कालक्रम से होने वाली पर्यायों को क्रमभावीपर्याय कहते हैं / धर्म की अपेक्षा से स्वभाव गुण नहीं होते हैं, किन्तु अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से गुण परस्पर में स्वभाव हो जाते हैं / द्रव्य भी स्वभाव हो जाते हैं / स्वभाव से अन्य रूप होने को विभाव कहते हैं / केवल भाव को शुद्ध कहते हैं, उससे विपरीत भाव को अशुद्ध कहते हैं / स्वभाव का भी अन्यत्र उपचार करना उपचरित स्वभाव है / वह दो प्रकार का है - एक कर्मजन्य और दूसरा स्वाभाविक / इस प्रकार कई दृष्टियों से पर्याय का सूक्ष्मता से तथा गम्भीरता से जिनागम में विवेचन किया गया है। स्थूल रूप से जहाँ पर्याय का निषेध किया जाता है या हेय कहा जाता है, वहाँ 'असमान जाति पर्याय' या 'भेद-विकल्प' अर्थ ग्रहण करना चाहिए / इसी प्रकार जहाँ पर्याय की स्वतन्त्रता का उल्लेख किया जाता है, वहाँ गुणों की दृष्टि से समझना चाहिए / द्रव्य दृष्टि में हम सभी पर्यायों को दृष्टि के विषय से ओझल नहीं कर सकते / क्योंकि सामान्य की अपेक्षा विशेष बलवान होता है / इसलिए प्रसंगतः वक्ता के भाव के अनुसार अपेक्षाकृत भाव ग्रहण करना चाहिए। संक्षेप में, जैनदर्शन में वस्तु को द्रव्यपर्यायात्मक माना है / वस्तु के मूल अंश दो हैं - द्रव्य और पर्याय। गुण और पर्याय के आधार को द्रव्य कहते हैं / गुण और पर्याय द्रव्य के ही आत्मस्वरूप हैं, इसलिए ये किसी भी स्थिति में द्रव्य से पृथक् नहीं होते / द्रव्य के परिणमन को ही पर्याय कहते हैं / अतः द्रव्य नित्य होने पर भी परिणामी है / द्रव्यदृष्टि से द्रव्य त्रिकाल, नित्य, ध्रुव तथा अखण्ड है। जैसे द्रव्य सत् है, गुण सत् है, वैसे ही एक समय की पर्याय भी सत् है और वह स्वतंत्र है, उसका परिणमन किसी के अधीन नहीं है। संदर्भ 1. "कालपर्याययोगेन राजा मित्रसहोऽभवत्" वा० रामायण, 7.65, 17 2. षट्खण्डागम 1/1,9,9; कषायपाहुड़ 1,1; नियमसार, तात्पर्यवृत्ति 18 - “परिसमन्तादायः पर्यायः"
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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