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________________ पर्याय की अवधारणा व स्वरूप 63 संज्ञा-संख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषतः / प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा // परन्तु जिस प्रकार सत्ता या अस्तित्व द्रव्य का स्वभाव है, वैसे ही तद्रूप परिणाम या सत् पर्याय का स्वभाव है। परिणमन पर्याय का धर्म है। दोनों में अन्तर केवल यही है कि द्रव्य त्रिकाल सत् है और पर्याय एकसमय का सत् है। जिस प्रकार वस्तु स्वतः सिद्ध है, उसी प्रकार स्वतः ही वह परिणामी है। इसलिए सत् नियम से उत्पाद, ध्रौव्य और व्ययरूप है / 63 द्रव्य गुण-पर्यायवान होने से वह सभी अवस्थाओं में सत् रहता है। और इस कारण "सद्रव्यलक्षणम्" द्रव्य का लक्षण 'सत्' है - यह जिनागम में कहा गया है। प्रश्न यह है कि जब पदार्थ द्रव्यस्वरूप है, द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं, तब यह स्पष्ट है कि द्रव्य तथा गुणों से पर्यायें होती हैं / 64 अतः पर्याय द्रव्य से सर्वथा भिन्न कैसे है ? समाधान यह है कि जैसे पानी में से उत्पन्न होने वाली लहर पानी से उत्पन्न होती है और उसी में विलीन हो जाती है। यदि जल की अवस्था से देखा जाए तो जल भिन्न है और लहर भिन्न है; किन्तु पर्याय के भेद से दोनों भिन्न-भिन्न रूप हैं / विषय-वस्तु के सम्बन्ध में 'पर्याय' का अर्थ है - पर्यायार्थिक नय का विषय / जो वस्तु पर्यायार्थिकनय का विषय बनती है, उसकी पर्याय संज्ञा है। इसी प्रकार जो वस्तु द्रव्याथिकनय का विषय है, उसकी द्रव्य संज्ञा है। यह 'दृष्टि' की अपेक्षा से है। पर्यायदृष्टि का अर्थ है - पर्याय की अपेक्षा से। प्रमाणज्ञान की दृष्टि से द्रव्य और पर्याय दोनों मुख्य हैं / इतना अवश्य है कि जिस समय द्रव्यदृष्टि का विषय मुख्य होता है, उस समय पर्यायदृष्टि का विषय गौण रूप से जानने में आता है / लेकिन जानने का अभाव नहीं है / अतएव जिसे हम दृष्टि का विषय कहते हैं और उसे पर्याय से भी भिन्न कहते हैं, उस 'पर्याय' का अर्थ पर्यायार्थिक नय का विषय है, जिसमें द्रव्य, गुण, पर्याय सभी सम्मिलित हैं / अध्यात्म शास्त्र में 'आत्मा' को 'ज्ञान' शब्द से समझाया गया है। वहाँ 'ज्ञान' शब्द में अकेला ज्ञान गुण नहीं, किंतु दर्शन-चारित्र आदि अनन्त गुणों की अखण्ड़ वस्तु समझना, जिसे 'ज्ञायक' कहा गया है / इस प्रकार सामान्य, एक, अभेद और नित्य यह दृष्टि का विषय है और विशेष भेद, अनेक और अनित्य-व्यय पर्याय होने से वह दृष्टि के विषय में सम्मिलित नहीं हैं। जिनागम में गुणों को भी पर्याय रूप में अभिहित किया गया है। जो द्रव्य के साथ सदा रहते हैं, उनको 'गुण' कहते हैं / जो द्रव्य में क्रम से परिणमन करती है, उसे 'पर्याय' कहते हैं। जो एक द्रव्य को अन्य द्रव्यों से पृथक् करते हैं, वे 'गुण' कहलाते हैं / गुणों से ही वस्तु की पहचान होती है। पर्यायें दो प्रकार की हैं - स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय / स्वभाव पर्याय छहों द्रव्यों में होती है। उसको अर्थपर्याय भी कहते हैं / वह वचन, मन के अगोचर, अति सूक्ष्म, आगम प्रमाण से स्वीकार्य तथा छः हानि-वृद्धि रूप है / स्वभाव पर्याय के भी दो भेद किए गए हैं - कारण शुद्धपर्याय और कार्य शुद्धपर्याय /
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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