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________________ 62 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा द्रव्य का अस्तित्व स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव से है / वस्तु स्वयं गुण-पर्यायों की आधारभूत है / वस्तु का निज विस्तार स्वप्रदेशसमूह है, निज गुण ही स्वशक्ति है और वर्तमान पर्याय रूप से वस्तु प्रकट है। __ सभी द्रव्यों में से कुछ द्रव्य क्रियावान और भाववान हैं तथा कुछ केवल भाववान हैं / जीव और पुद्गल में परिस्पन्द होने से दोनों क्रियावान और भाववान है, किन्तु धर्म-अधर्म-आकाश और काल में हलन-चलन नहीं होने से वे केवल भाववान हैं / पदार्थों की क्रिया का आधार क्रियावती शक्ति है और भावरूप परिणमन का आधार भाववती शक्ति है / परमार्थ से प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव रूप परिणमन करता है, किन्तु जीव और पुद्गल के साथ जब तक एकक्षेत्रावगाह रूप सम्बन्ध है, तब तक विभाव रूप परिणमन भी होता है। परन्तु कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के भाव करने में समर्थ नहीं है / जो वस्तु जिस द्रव्य में और जिस गुण में वर्तती है, वह अन्य द्रव्य में या अन्य गुण में संक्रमण को प्राप्त नहीं होती / 57 जिस प्रकार एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में प्रविष्ट नहीं होता, वैसे ही एक पर्याय कभी दूसरी पर्याय रूप में नहीं होती। जिनागम में द्रव्य के विकार को तथा गुणों को भी 'पर्याय' कहा गया है। पर्याय के दो भेद हैं - द्रव्यपर्याय और गुणपर्याय / अनेक द्रव्यों में एकता का बोध कराने वाली पर्याय को द्रव्यपर्याय कहते हैं / उसके भी दो भेद हैं - सजातीय और विजातीय / गुणपर्याय के भी दो भेद हैं - स्वभावपर्याय और विभावपर्याय / परमाणु पुद्गल द्रव्य की स्वभावपर्याय हैं और दो या तीन आदि परमाणुओं के संयोग से उत्पन्न व्यणुक, त्र्यणुक आदि पुद्गल द्रव्य की विभावपर्याय हैं / आचार्य कुन्दकुन्द ने पर्याय के दो भेद इस प्रकार किये हैं.८ - एक स्वपरसापेक्ष और एक निरपेक्ष / निरपेक्ष पर्याय का दूसरा नाम स्वभावपर्याय है - जो कर्मों की उपाधि से रहित हैं / 59 स्वभाव पर्याय के भी दो भेद कहे गये हैं - कारण शुद्धपर्याय और कार्य शुद्धपर्याय / द्रव्य की शुद्ध पर्याय को ही स्वभावपर्याय कहते हैं / 69 परमाणु रूप अवस्था परनिरपेक्ष है। परमाणु अनादिनिधन है। वह कारणरूप है और कार्यरूप भी है। परमाणुओं के सम्बन्ध से स्कन्ध उत्पन्न होते हैं, इसलिए परमाणु कारण हैं। स्कन्धों के टूटने से परमाणु अपने मूल रूप को प्राप्त करता है, अतः परमाणु कार्य भी है। आचार्य समन्तभद्र ने स्पष्ट रूप से कहा है कि द्रव्य और पर्याय एक वस्तुरूप हैं / प्रतिभास में भेद होने पर भी वह अभिन्न है, एक ही वस्तु है। उन दोनों के स्वभाव, परिणाम, संज्ञा, संख्या और प्रयोजन आदि, भिन्न-भिन्न होने से उनमें कथंचित् भेद हैं, सर्वथा नहीं है। द्रव्य अनादि, अनन्त, एक होता है, किन्तु पर्याय सादि, सान्त, अनेक होती है। द्रव्य शक्तिमान है, पर्याय उसकी शक्तियाँ हैं / द्रव्य की द्रव्यसंज्ञा और पर्याय की पर्यायसंज्ञा है / द्रव्य की एक संख्या है और पर्याय की अनेक संख्या है। द्रव्य त्रिकालवर्ती है, किन्तु पर्याय वर्तमान काल की होती है। इस कारण दोनों के लक्षण भी भिन्न हैं। कहा भी है - द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोव्यतिरेकतः / परिणामविशेषाच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः //
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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