SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 57 पर्याय की अवधारणा व स्वरूप स्वभाव गुणपर्याय वह है, जो समस्त द्रव्यों में प्रति समय अपने-अपने अगुरुलघु गुणों से षट्गुणी हानि-वृद्धि रूप परिणमन होते हैं / विभाव गुणपर्याय वह है, जो वर्णादि गुण पुद्गल-स्कन्धों में ज्ञानादि गुण जीव में पुद्गल के संयोग के पहले आगामी दशा में हीनाधिक होकर परिणमन करते हैं। जैसे वस्त्र शुक्लादि गुणों से अपनी परिणति रूप पर्याय से सिद्ध है, इसलिए गुणपर्यायमय वस्त्र है। इसी प्रकार द्रव्य गुणपर्यायमय है। जैसे वस्त्र के दो-तीन पाट मिलकर समानजातीय पर्याय होती है, उसी तरह पुद्गल की व्यणुक, व्यणुकादि अनेक समानजातीय पर्याय होती है / जैसे वस्त्र के रेशम और कपास के दोतीन पाट मिलकर असमानजातीय द्रव्यपर्याय होती है, उसी तरह जीव पुद्गल मिलकर देव, मनुष्य आदि असमानजातीय द्रव्यपर्याय होती है। जैसे किसी वस्त्र में अपने अगुरुलघुगुण द्वारा काल-क्रम से नाना प्रकार के परिणमन होने से अनेकता लिए शुक्लादि गुणों की गुण-स्वरूप स्वभावपर्याय होती है, उसी प्रकार सभी द्रव्यों में सूक्ष्म अपने-अपने अगुरुलघुगुणों से समय-समय षट्गुणी हानि-वृद्धि से नाना स्वभाव गुणपर्याय हैं / और जैसे वस्त्र में अन्य द्रव्य के संयोग से वर्णादि गुणों की कृष्ण-पीतादि भेदों से पूर्वउत्तर अवस्था में हीन अधिक रूप विभावगुण-पर्यायें होती हैं, उसी प्रकार पुद्गल में वर्णादि गुणों की तथा आत्मा में ज्ञानादि गुणों की परसंयोग से पूर्व तथा उत्तर अवस्था में हीन-अधिक विभावगुणपर्याय है।३७ अन्य प्रकार से पर्याय के दो भेद कहे गये हैं - अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय एक समयवर्ती पर्याय को अर्थपर्याय कहते हैं, जो सूक्ष्म, क्षणक्षयी तथा वचनगोचर-विषय नहीं होती है / 28 चिरकाल तक रहने वाली पर्याय को व्यञ्जनपर्याय कहते हैं / व्यञ्जनपर्याय स्थूल, चिरकालस्थायी, वचनगोचर तथा अल्पज्ञानी के ज्ञान का विषय होती है / जीव की मनुष्य, देव आदि व्यञ्जनपर्यायें हैं / जीव की भगवान रूप सिद्ध-पर्याय स्वभाव व्यञ्जनपर्याय है। मनुष्य, देव आदि पर्यायें विभाव व्यञ्जनपर्याय हैं / अविभागी पुद्गल परमाणु द्रव्य की स्वभाव द्रव्यव्यञ्जन पर्याय है / 39 अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय दोनों ही स्वभावविभाव के भेद से दोनों प्रकार की होती हैं / ये सभी पर्यायें द्रव्यों में और उनके गुणों में रहती हैं / जीव के केवलज्ञान आदि स्वभावगुण हैं और मतिज्ञान आदि विभावगुण हैं / आचार्य कुन्दकुन्द ने पर्याय के दो भेदों को इस प्रकार कहा है कि - 1. स्व-परसापेक्ष, 2. निरपेक्ष / परसापेक्ष पर्याय का ही दूसरा नाम विभावपर्याय है तथा निरपेक्ष पर्याय का दूसरा नाम स्वभावपर्याय है। श्री माइल धवल ने द्रव्य और गुणों में स्वभाव तथा विभाव की अपेक्षा से पर्यायों के चार भेदों का वर्णन किया है। उनका कथन है१ - द्रव्य और गुणों में स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय जाननी चाहिए। जीव में जो स्वभाव हैं, कर्मकृत होने से वे भी विभाव हैं / द्रव्य की शुद्ध पर्याय को ही स्वभाव पर्याय कहते हैं / जीव द्रव्य के प्रदेश शरीराकार होते हैं / जीव के मुक्त हो जाने पर भी वे प्रदेश किंचित् न्यून शरीराकार ही रहते हैं। फिर उनमें कोई हलन-चलन नहीं होता और न अन्य आकार रूप से परिणमन होता है। उनकी यह अवस्था जीव द्रव्य की स्वभाव पर्याय हैं, क्योंकि उसके होने में अब कोई परनिमित्त नहीं है। क्योंकि कर्म के निमित्त से प्राप्त शरीरादि का अभाव हो चुका है। श्री माइलधवल के शब्दों में जीव के द्रव्य-भावकों से मुक्त हुए जो प्रदेश शरीर के आकार रूप से स्थित होकर निश्चल हैं, वे शुद्धद्रव्यपर्याय हैं / इसी प्रकार द्रव्य-कर्म और भावकर्म से रहति जीव के ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्यगुण
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy