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________________ 56 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा को पर्याय कहते हैं / 27 'व्यतिरेक' का अर्थ यहाँ पर भेद है / जो काल के प्रमाण से एक समय मात्र चैतन्य आदि के परिणति-भेद हैं, उनको पर्याय कहते हैं। पदार्थों के अवयवों को भी परस्पर व्यतिरेक वाले होने से उनको भी पर्याय कहा जाता है / 28 विश्व में जितने ज्ञेय पदार्थ हैं, वे सभी गुण, पर्याय सहित हैं / अतः प्रत्येक द्रव्य आधारभूत अनन्तगुणस्वरूप है / गुण का नाम विस्तार है, पर्याय का नाम आयत है / 29 विस्तार चौड़ाई को कहते हैं और आयत लम्बाई को कहते हैं / गुण चौड़ाईरूप हैं, जो अविनाशी सदा द्रव्य के साथ रहने वाले हैं और पर्याय लम्बाई रूप हैं, जिससे अतीत, अनागत और वर्तमान तीनों कालों में एक के बाद दूसरी इस क्रम से प्रकट होती हैं। पर्याय के भेद - यह विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि सम्पूर्ण द्रव्य परिणमन करता है, द्रव्यांश नहीं / जैसे तरंगमालाओं से व्याप्त समुद्र तरंग रूप से स्वयं परिणमन करता है, क्योंकि 'सत्' स्वयं उत्पाद है, स्वयं ध्रौव्य है और स्वयं व्यय भी है। आचार्य अकलंक देव कहते हैं कि द्रव्य की पर्याय के परिवर्तन होने पर अपरिवर्तनीय अंश कोई अवश्य रहता है। यदि कोई अंश परिवर्तनशील और कोई अंश अपरिवर्तनशील हो तो द्रव्य में सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य का दोष आता है / जिनागम की यह मूल मान्यता है कि द्रव्य जिस समय जिस भावरूप से परिणमन करता है, उस समय वह वैसा ही होता है / 35 उत्पाद, व्यय को द्रव्य का अंश कहने का कारण यह है कि उत्पाद, स्थिति और भंग पर्यायों में होता है / पर्यायें नियम से द्रव्य होती हैं, इसलिए उन सम्पूर्ण रूप में एक द्रव्य है / उत्पादादि सब द्रव्य ही हैं, वे द्रव्य से पृथक् नहीं हैं / 32 पर्याय के दो भेद हैं - एक द्रव्यपर्याय और दूसरी गुणपर्याय / अनेक द्रव्यों से मिलकर जो एक पर्याय होती है, वह द्रव्यपर्याय है। द्रव्यपर्याय दो प्रकार की है - एक समान जातीय, दूसरी असमान जातीय / वास्तव में द्रव्य के जितने प्रदेश रूप अंश हैं, उतने सब नाम से द्रव्यपर्याय हैं / द्रव्यपर्याय का लक्षण यह कहा गया है कि अनेक द्रव्यों में एकता का बोध कराने वाली द्रव्यपर्याय है, वह अनेक द्रव्यात्मक एकता की प्रतिपत्ति की कारणभूत द्रव्यपर्याय है / 33 अनेक द्रव्यों की जो एक पर्याय है, वह द्रव्यपर्याय है। अनेक द्रव्यों में वह एक द्रव्यत्व के लिए कारण कही गई है।३४ अचेतन द्रव्य का अन्य अचेतन द्रव्यों के साथ मिल जाना समानजातीय द्रव्यपर्याय है। अतः पुद्गल द्रव्य के दो, तीन, चार इत्यादि परमाणु मिलकर स्कन्ध हो जाते हैं / जीव का अन्य भव में जाने से शरीर रूप पुद्गलों के साथ मनुष्य, देव आदि पर्याय की उत्पत्ति होना, अचेतन पुद्गल द्रव्यों के साथ मिलाप होना असमानजातीय द्रव्यपर्याय है। ये दोनों प्रकार की अनेक द्रव्यात्मक एकरूप द्रव्यपर्यायें जीवों और पुद्गलों की ही होती है। यही नहीं, अनेक द्रव्यों का परस्पर संश्लेष रूप सम्बन्ध होने से वे सभी पर्यायें अशुद्ध ही होती हैं / परन्तु धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन चार द्रव्यों का परस्पर संश्लेष रूप सम्बन्ध न होने से उनकी पर्याय कभी भी अशुद्ध नहीं होती; क्योंकि अशुद्धता परद्रव्य के सम्बन्ध से कही जाती है / 35 गुणपर्याय के भी दो भेद कहे गये हैं - स्वभाव गुणपर्याय और विभाव गुणपर्याय / आचार्य जयसेन के शब्दों में जो गुण के द्वारा अन्वय रूप से एकत्व की प्रतिपत्ति रूप ज्ञान कराने में कारणभूत होती है, उसे गुणपर्याय कहते हैं / वह एक द्रव्यगत ही होती है, जैसे आम के फल में हरा, पीला आदि गंगा३६ /
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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