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________________ पर्याय की अवधारणा व स्वरूप 55 स्थिर रूप पदार्थ के बिना नहीं होते / उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य द्रव्य की पर्यायों में रहते हैं और निश्चय ही पर्यायें द्रव्य में रहती हैं / 8 उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य पर्याय पर अवलम्बित हैं और पर्यायें द्रव्य के आश्रित हैं / इस कारण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य सभी एक द्रव्य हैं, अन्य कोई द्रव्यान्तर नहीं है। जैसे वृक्ष, स्कन्ध, शाखा, मूल आदिरूप है, परन्तु स्कन्धादि वृक्ष से पृथक् पदार्थ नहीं हैं, वैसे ही उत्पादादि से द्रव्य पृथक् नहीं है, एक ही है / द्रव्य अंशी है और उत्पादादि अंश हैं / 8 कालबोधक प्रत्ययः पर्याय - प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से युक्त होती है। उसका अस्तित्व स्वचतुष्टय (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव) से है; परचतुष्टय से नहीं है / अतः स्वचतुष्टय के बिना वस्तु की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जिस प्रकार प्रत्येक वस्तु स्वयं द्रव्य है, उसके प्रदेश उसका क्षेत्र हैं; क्योंकि सभी द्रव्य अपने प्रदेशों में निवास करते हैं, उसके गुण उसका भाव है, उसी प्रकार उसकी पर्यायें उसका काल है / दूसरे शब्दों में गुण भाव का, प्रदेश क्षेत्र का और पर्याय कालवाचक है। सामान्य और विशेष ये द्रव्य के भेद हैं; एक और अनेक ये भाव के भेद हैं / अभेद और भेद ये क्षेत्र के भेद हैं और नित्य तथा अनित्य ये काल के भेद हैं / काल द्रव्य का अस्तित्व जीव और पुद्गल के परिणमन से जाना जाता है / काल द्रव्य की समय आदि पर्याय जीव, पुद्गल के परिणमन करने से ही प्रकट होती है। इस कारण काल द्रव्य भी लोक में है / सबसे सूक्ष्म अविभागी परमाणु होता है। वह परमाणु जितनी जगह घेर कर ठहरता है, रहता है, उतनी जगह का नाम प्रदेश है। यद्यपि पुद्गल द्रव्य परमाणु की अपेक्षा अप्रदेशी है, तथापि दो अणु आदि में मिलने की शक्ति है / पर्यायों की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात, अनन्तप्रदेशी पुद्गल द्रव्य है / लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं और एकएक प्रदेश में एक-एक कालाणु ठहरा हुआ है / यद्यपि कालाणु परस्पर मिलने रूप शक्ति से रहित है, तथापि संख्या में असंख्यात हैं / एक आकाश के प्रदेश में जो कालाणु है, वह दूसरे प्रदेश में रहने वाले कालाणु से कदापि नहीं मिलता, इस कारण अन्य प्रदेशवर्ति कालाणु से भिन्न है। यदि कालाणु भिन्न नहीं होते और उनमें मिलने की शक्ति होती तो समय नामक पर्याय भी नहीं होती। पर्याय समय से अन्य कोई भी काल नहीं है, जो निरंशी है। इस प्रकार सत् सामान्य की परिणमन रूप विवक्षा से काल का निर्वचन किया जाता है। "षट्खण्डागम" में कहा गया है कि परिणामों से पृथक् भूतकाल का अभाव है। परिणाम अनन्त कहे गए हैं२२ / यही नहीं, अतीत और अनागत पर्यायों को काल स्वीकार किया गया है / पर्याय का लक्षण - पर्याय द्रव्य के क्रम-भावी अंश हैं / आचार्य जयसेन अन्वय को गुण का और व्यतिरेक को पर्याय का लक्षण कहते हैं / गुण और पर्याय में यही अन्तर है कि ध्रुव अन्वयी या सहभावी का नाम गुण है और क्रमभावी का नाम पर्याय है / वास्तव में गुण, पर्यायें एक द्रव्यपर्याय है, क्योंकि गुण और पर्याय एक द्रव्यात्मक ही होती है / पर्याय द्रव्य के व्यतिरेकी अंश है / जो व्यतिरेकी है और अनित्य है तथा अपने काल में द्रव्य के साथ तन्मय होकर रहती है, ऐसी अवस्था विशेष या धर्म या अंश को पर्याय कहा जाता है / 24 पर्याय एक के बाद दूसरी इस प्रकार क्रम से होती है, इसलिए पर्याय क्रमवर्ती कहीं जाती है / 25 पर्यायें व्यतिरेकी होती हैं२६, आचार्य अमृचन्द्र अन्वय को द्रव्य कहते हैं, द्रव्य के विशेषणों को गुण और द्रव्य व्यतिरेक
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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