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________________ 58 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा होते हैं, उन रूप जीव की शुद्ध गुणपर्याय जानो / 42 परनिमित्त से होने वाली पर्याय को विभावपर्याय कहते हैं / संसारी जीव के आत्मप्रदेशों का वही आकार होता है, जो शरीर का आकार होता है और शरीर नामकर्म के निमित्त से प्राप्त होता है। अतः जीव के प्रदेशों का शरीर रूप परिणाम होना विभाव द्रव्यपर्याय है। इसी प्रकार संसारी जीव की मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और कुअवधिज्ञान ये सब जीव की शुद्ध गुणपर्याय जानो / 2 परनिमित्त से होने वाली पर्याय को विभावपर्याय कहते हैं / संसारी जीव के आत्मप्रदेशों का वही आकार होता है जो शरीर का आकार होता है और शरीर नामकर्म के निमित्त से प्राप्त होता है / अतः जीव के प्रदेशों का शरीर रूप परिणाम होना विभाव द्रव्यपर्याय है। इसी प्रकार संसारी जीव की मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत और कुअवधिज्ञान ये सब जीव की विभावगुणपर्याय हैं / जीव जब पूर्व शरीर को छोड़कर, नया शरीर धारण करने के लिए मोड़ पूर्वक गमन करता है, उस समय उसके शरीर नहीं होने पर भी उसके आत्मा के प्रदेशों का वही आकार बना रहता है, जिस शरीर को उसने छोड़ दिया है / उसकी यह परिणति भी विभावद्रव्यपर्याय है / 73 इस प्रकार जीवद्रव्य की स्वभाव-विभाव पर्यायों का और जीव की स्वभाव-विभाव गुणपर्यायों का वर्णन किया गया है। 'द्रव्य' शब्द 'द्रु' धातु से निष्पन्न है। उसका अर्थ है - जाना या प्राप्त करना / जो गुण-पर्यायों को प्राप्त करता है, वह द्रव्य है। प्रत्येक द्रव्य एक स्वभाव वाला है जो अनादिसिद्धि है / द्रव्य में होने वाली विभिन्न परिणमन रूप जो अनेकता है, उसका कारण परिणाम किंवा पर्याय है। द्रव्य त्रिकालवर्ती है। उसमें जो ध्रुव अंश है, वह तीनों कालों में ध्रुव रहता है। किन्तु जो क्षणिक अंश है, उसका प्रवाह सदा चलता रहता है, एक पर्याय जाती है तो दूसरी पर्याय आती है। इस तरह पर्याय उत्पन्न होती है और नष्ट होती रहती है; परन्तु द्रव्य सदा स्थिर रहता है / द्रव्य कभी न तो नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है। परिणमनशील पर्याय - प्रत्येक वस्तु नित्य होने पर भी परिणमनशील है। जो वस्तु को सर्वथा नित्य मानता है, उसके मत में सर्वथा नित्य पदार्थ में अर्थक्रिया नहीं हो सकती है। जो अर्थक्रिया से रहित है, वह द्रव्य नहीं है। द्रव्य का सामान्य लक्षण है - अर्थ-क्रिया का होना / 5 जो जाना जाता है, प्राप्त किया जाता है, निष्पादन किया जाता है, वह अर्थ, कार्य या पर्याय है / / 6 'अर्थ' से अभिप्राय है - क्रिया करने से / कार्य को करने का नाम अर्थक्रिया है। प्रायः सभी भारतीय दार्शनिक ऐसा मानते हैं, कि जिसमें अर्थक्रिया होती है, वही परमार्थ सत् है। परन्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा क्षणिक पदार्थ में अर्थक्रिया सम्भव नहीं है। क्योंकि अर्थक्रिया के दो ही प्रकार हैं - प्रथम वह क्रम से होती है या फिर एक साथ होती है; किन्तु सर्वथा नित्य वस्तु में ये दोनों ही नहीं हो सकते। क्योंकि उसमें गमन और स्थिति सम्भव नहीं है। फिर, नित्य में परिवर्तन नहीं हो सकता / कारण यह है कि पूर्व स्वभाव को छोड़कर उत्तर स्वभाव को धारण करने वाला द्रव्य सर्वथा नित्य नहीं कहा जा सकता / फिर, शुभ और अशुभ क्रिया का तो क्या कहना है ?48
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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