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________________ द्रव्य-गुण-पर्याय : भेदाभेद जैन आचार्यों ने इन एकान्त पक्षों की अवधारणा पर विस्तृत विवेचन कर यह सिद्ध किया है कि एकान्त भेद या एकान्त अभेद संभव नहीं हो सकता / उमास्वाति, कुन्दकुन्द, सिद्धसेन दिवाकर, अकलंक, हरिभद्र आदि के नाम इस सन्दर्भ में विशेष उल्लेखनीय हैं। उमास्वाति ने 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' कहा है। यदि उन्हें दोनों की स्वतन्त्रता इष्ट होती तो संभव है कि वे द्रव्य के लक्षण में गुण और पर्याय का उल्लेख नहीं करते / उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया कि गुण और पर्याय से रहित द्रव्य की बुद्धि से मात्र कल्पना की जा सकती है / वस्तु जगत् में इनका भेद संभव नहीं है / कुंदकुंद ने भी दोनों में अविनाभाव सम्बन्ध का उल्लेख करते हुए लिखा है - दव्वेण विणा ण गुणा गुणोहिं दव्व विणा ण संभवदि / अव्वदिरित्तो भावो दव्वगुणांणं हवदि तम्हा // 6 सन्मतितर्क के कर्ता आचार्य सिद्धसेन ने भी द्रव्य और गुण के भेदाभेद से सम्बन्धित प्रश्न को सापेक्षता के आधार पर समाहित किया है / जैन मतानुसार प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से युक्त होता है / इसे ही आधार बनाकर भेदवादी कहते हैं कि द्रव्य का लक्षण है - ध्रुवता और गुण का लक्षण है उत्पाद-व्यय, अतः दोनों भिन्न हैं। सिद्धसेन के अनुसार ऐसा मानने पर अव्याप्ति दोष आता है, क्योंकि द्रव्य की तरह गुण भी स्थिर रहते हैं तथा गुण की तरह द्रव्य में भी उत्पाद-व्यय को गुण का लक्षण बताना अव्याप्ति दोष है / यह लक्षण किसी भी सत् पदार्थ पर लागू नहीं होता / अतः दोनों में एकान्त भेद मानना उचित नहीं है। एकान्त भेद की तरह एकान्त अभेद मानना भी ठीक नहीं, क्योंकि एकान्त अभेदवाद में कर्ता, कर्म, करण आदि अनेक कारकों का और गति-आगति आदि अनेक क्रियाओं का प्रत्यक्षसिद्ध भेद हो जाता है तथा शुभाशुभ कर्म का फल, इहलोक-परलोक, ज्ञान-अज्ञान, बंध-मोक्ष आदि युग्मों की उपपत्ति भी नहीं हो सकती / 8 आचार्य अकलंक के अनुसार द्रव्य और गुण में एकान्ततः अभेद मानने पर या तो गुण रहेंगे या द्रव्य / यदि केवल द्रव्य को मानें तो गुण के अभाव में द्रव्य निःस्वभाव हो जायेंगे, क्योंकि गुणों के आधार पर ही द्रव्य के स्वरूप का निर्धारण होता है और यदि केवल गुणों की सत्ता मानें तो द्रव्य के अभाव में गुण निराश्रय हो जायेंगे / अतः गुणों का भी अभाव हो जायेगा'९ अतः द्रव्यगुण को सर्वथा अभिन्न मानना भी उचित नहीं है। आचार्य सिद्धसेन को भी द्रव्य-गुण के एकान्त भेद की तरह एकान्त अभेद मान्य नहीं है / सामान्य के अभाव में विशेष का और विशेष के अभाव में सामान्य का सद्भाव उसी तरह संभव नहीं जिस तरह घट के अभाव में मिट्टी और मिट्टी के अभाव में घट आदि / 20 अभेदवाद में एक समान दो कृष्ण पदार्थों का चक्षु के साथ सम्बन्ध होने पर 'यो कृष्ण वर्ण वाले हैं' - इतना तो बोध हो जाता है, पर वह किसी दूसरे कृष्ण पदार्थ से अनन्त या असंख्य गुण कृष्ण है, इस भेद का ज्ञान कैसे सिद्ध होगा? इसी प्रकार दो फलों का रसनेन्द्रिय से सम्पर्क होने पर उनके रस का बोध हो जाता है, पर पहले
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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