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________________ 32 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा (2) संख्याकृत भेद - संख्या अर्थात् गणना / जैसे द्रव्य छः हैं, गुण चौबीस हैं और पर्याय अनन्त हैं। (3) लक्षणकृत भेद - द्रव्य का लक्षण - गुण-पर्याय युक्त हैं / गुण का लक्षण - सहभावी धर्म है / पर्याय का लक्षण - क्रमभावी धर्म है / इस प्रकार संज्ञा, संख्या व लक्षण के आधार पर तीनों में परस्पर भेद हैं / द्रव्यानुयोग तर्कणा में तीनों की भिन्नता को बताते हुए लिखा है - 'मुक्ताभ्यः श्वेततादिभ्यो मुक्तादाम यथा पृथक्' / 14 अर्थात् जैसे मोती की माला मोतियों से तथा श्वेतता आदि गुण से भिन्न है, वैसे ही द्रव्य से गुण-पर्याय भिन्न है। कथंचित भिन्न होते हुए भी तीनों अभिन्न भी हैं। तीनों का परस्पर आधार -आधेय भाव सम्बन्ध है / द्रव्य के बिना गुण पर्याय का आश्रय नहीं होता है और गुण पर्याय के बिना द्रव्य को जाना नहीं जा सकता है, अतः तीनों अभिन्न हैं। द्रव्य-गुण का भेदाभेद - जैन तत्त्वमीमांसा का एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि द्रव्य और गुण में क्या सम्बन्ध है ? वे परस्पर भिन्न हैं, अभिन्न हैं या भिन्नाभिन्न / सन्मतितर्क प्रकरण में एकान्त भेद और एकान्त अभेद मानने वाले वैशेषिक और वेदान्तियों का पूर्व पक्ष के रूप में उल्लेख किया है और उनकी समीक्षा कर द्रव्य और गुण में भेदाभेद सिद्ध किया है। वैशेषिक मत के अनुसार द्रव्य और गुण सर्वथा भिन्न होते हैं / उनके अनुसार उत्पन्नं द्रव्यं निर्गुणं निष्क्रियं च भवति' अर्थात् उत्पन्न होते समय द्रव्य निर्गुण एवं निष्क्रिय होता है, तत्पश्चात् समवाय सम्बन्ध से गुण एवं कर्म का द्रव्य से सम्बन्ध होता है / सन्मतितर्क प्रकरण में भी पूर्व पक्ष की ओर से द्रव्य और गुण की पृथकता के दो आधारभूत हेतु बताये गये हैं - 1. लक्षण की भिन्नता 2. ग्राहक प्रमाण की भिन्नता५ द्रव्य और गुण के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं / द्रव्य गुणों का आधार है, जबकि द्रव्य गुण के आश्रित रहते हैं। द्रव्य गुणवान् होता है, जबकि गुण निर्गुण होते हैं / द्रव्य क्रियावान् होता है, जबकि गुण निष्क्रिय होते हैं / लक्षण की भांति दोनों के ग्राहक प्रमाण भी भिन्न-भिन्न हैं। घट-पट आदि द्रव्यों का ग्रहण एक से अधिक-चक्षु और स्पर्शन-इन दो इन्द्रियों से होता है, जबकि रूप, रस, स्पर्श आदि गुणों को ग्रहण एक इन्द्रिय सापेक्ष होता है / अतः दोनों के लक्षण व ग्राहक प्रमाण भिन्न-भिन्न होने से दोनों की पृथकता स्वतः प्रमाणित है। अभेदवादी मत के अनुसार प्रत्येक द्रव्य की अखण्ड सत्ता है / वस्तु में गुणकृत विभाग नहीं होता है / जिस प्रकार पुद्गल से पृथक् वर्ण, गंध, रस व स्पर्श नहीं होते उसी प्रकार द्रव्य के अभाव में गुण और गुण के अभाव में द्रव्य के अस्तित्व की परिकल्पना ही संभव नहीं है, अतः दोनों में अभेद है।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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