________________ 31 द्रव्य-गुण-पर्याय : भेदाभेद (4) पंचास्तिकाय में सप्तभंगी के आधार पर द्रव्य के स्वरूप को व्याख्यायित किया है / (5) धवला तथा कषायपाहुड़ में त्रिकाली पर्यायों के पिण्ड को द्रव्य कहा गया है / गुण - उत्तराध्ययनसूत्र में गुण को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि - एगदव्वसिया गुणा' अर्थात् जो द्रव्याश्रित है, वह गुण है। वैशेषिक सूत्र में भी गुण को द्रव्याश्रित माना गया है। आचार्य उमास्वाति ने आगमिक परम्परा का अवलम्बन लेते हुए भी वैशेषिक सूत्र का उपयोग करके गुण का लक्षण किया 'द्रव्याश्रया निर्गुण गुणाः' अर्थात् गुण वह है, जो द्रव्य के आश्रित है, किन्तु स्वयं निर्गुण है / द्रव्यानुयोगतर्कणा, जैनसिद्धान्त दीपिका आदि ग्रन्थों में द्रव्य के सहभावी धर्म को गुण कहा है। पर्याय - गुण की तरह पर्याय भी द्रव्य का धर्म है / गुण निरन्तर द्रव्य के साथ रहता है, किन्तु पर्याय बदलती रहती है अतः कहा गया 'अन्वयिनो गुणाः, व्यतिरेकिणः पर्यायाः' / अर्थात् गुण द्रव्य का अन्वयी धर्म है और पर्याय व्यतिरेकी / उत्तराध्ययनसूत्र'१२ के अनुसार जो द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित रहते हैं, उन्हें पर्याय कहते हैं / वाचक ने पर्याय को परिणाम के रूप में व्याख्यायित किया है। __ अर्थात् परिणाम पर्याय का ही दूसरा नाम है। जैन सिद्धान्त दीपिका में पूर्व आकार का त्याग और उत्तर आकार के ग्रहण को पर्याय कहा है / द्रव्य-गुण और पर्याय की संक्षिप्त विवेचना से सहज जिज्ञासा होती है कि इन तीनों में पारस्परिक क्या सम्बन्ध है ? ये एक दूसरे से पृथक् हैं या अपृथक् ? विभिन्न भारतीय दर्शनों में इस जिज्ञासा का समाधान अलग-अलग दिया गया है / जैन दर्शन में द्रव्य-गुण-पर्याय की भिन्नाभिन्नता को लेकर मुख्य रूप से चार पक्ष बनते हैं। (1) द्रव्य-गुण-पर्याय का भेदाभेद (2) द्रव्य-गुण का भेदाभेद (3) द्रव्य-पर्याय का भेदाभेद (4) गुण-पर्याय का भेदाभेद द्रव्य-गुण-पर्याय का भेदाभेद - जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य, गुण और पर्याय में न तो एकान्ततः भेद है और न ही एकान्ततः अभेद है, अपितु भेदाभेद है / द्रव्य-गुण-पर्याय कथञ्चित भिन्न हैं / इस भेद को हम तीन प्रकार से समझ सकते हैं - नाम, संख्या और लक्षण / 13 (1) नामकृतभिन्नता - द्रव्य-गुण-पर्याय इत्यादि नामों से तीनों में परस्पर भिन्नता है।