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________________ 16 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा मन, वचन और कर्म से हिंसा नहीं करना, करवाना नहीं और न ही करने वालों का अनुमोदन करना / (2) सत्य - सत्य, हितकारी और प्रिय वचन बोलना, असत्य भाषण नहीं करना, करवाना नहीं और करने वालों का अनुमोदन करना नहीं / (3) अस्तेय - चोरी नहीं करना और दूसरों की गिरी हुई या भूली हुई वस्तु नहीं उठाना / वस्तु जीव के विकास का साधन है / अतः चोरी करना दूसरों के जीवन के विकास को अवरुद्ध करना है / (4) ब्रह्मचर्य - विवाह नहीं करना और इन्द्रियसंयम रखना / (5) अपरिग्रह - सांसारिक वस्तुओं में ममता न रखकर, उनका त्याग करना / इन महाव्रतों के देश-काल से अबाधित होने से इनका अनिवार्य रूप से पालन होना चाहिये / इन व्रतों का संन्यासियों को दृढ़तापूर्वक पालन करना होता है, जबकि श्रावकों को यथाशक्ति इनका पालन करना चाहिये / इसीलिये श्रावकों के लिये इन्हें अणुव्रत कहते हैं / ये मूलव्रत हैं / इन मूल व्रतों को मद्य, मांस, मदिरा आदि के त्याग के साथ मूलगुण के नाम से पुकारते हैं / 2. गुणव्रत - महाव्रतों और अणुव्रतों का अच्छी तरह से पालन हो सके, इसके लिये कुछ और भी व्रत बताये गये हैं, जिन्हें गुणव्रत और शिक्षाव्रत कहते हैं / गुणव्रत निम्नलिखित हैं - (1) दिगव्रत - अमुक दिशा में अमुक दूरी तक ही चलना इत्यादि पर्यटन पर नियन्त्रण इसमें आता है। इससे विचरणक्षेत्र सीमित होने से तृष्णा और आवश्यकतायें घट जाती हैं / (2) भोगोपभोग-संयमव्रत - खाने, पीने, पहिनने आदि में संयम रखना, जिससे कि मन और इन्द्रियों को वश में रखा जा सके। उपयोग की वस्तुयें मर्यादित रखना और आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का उपयोग नहीं करना / (3) अनर्थदंडत्यागवत - जिन बातों या कार्यों से हिंसा होती हो, उनका परित्याग करना / ___3. शिक्षाव्रत - गुणव्रतों के अलावा चार शिक्षाव्रत भी प्रतिपादित किये गये हैं, जिनका लक्ष्य जीव को भौतिक मोह से छुड़ाकर, शान्ति एवं शुद्धि प्रदान करना है। ये निम्नलिखित हैं - (1) सामायिक - राग-द्वेष का परित्याग करना, दुःख में अनुद्विग्न और सुख में निःस्पृह होना / इसके लिये स्तुति, वन्दन, पाठ, ध्यान और तप करना चाहिये / (2) प्रतिक्रमण - पाप का प्रायश्चित करना और पुनः पाप नहीं करना / (3) पौषध - विशेष अवसरों पर उपवास करना (4) वैयावृत्य - पात्रों को दान आदि देना। 4. चरित्राचार - धर्मविधि का महत्त्व संचित कर्मों का क्षय कर मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करना है। यह निर्जरा के अन्तर्गत आता है। इससे पूर्व संवर की प्रक्रिया होती है, जिसमें चरित्राचार के नियमों का समावेश होता है। ये निम्नलिखित हैं - (1) यतिधर्म - क्षमा, मार्दव (अमद), आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य और आकिंचन्य। (2) गुप्ति - गुप्ति का तात्पर्य है रक्षा करना / तीन प्रकार के योगों - मनोयोग, वाचायोग और कायायोग - को वश में रखना तथा उन्हें असत्य प्रवृत्ति से हटाकर, आत्माभिमुख करना ही त्रिगुप्ति कहलाता है। मनोगुप्ति में मनोयोग पर संयम होता है। इसके अन्तर्गत किसी प्रकार के बुरे विचार मन में नहीं लाने
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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