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________________ 15 जैन दार्शनिक सिद्धान्त परिस्थितियाँ भिन्न होती हैं / अतः उनके व्रत-पालन की मर्यादा में भी भिन्नता होती है। जिन व्रतों का साधु कठोरतापूर्वक पालन कर सकता है, उन्हें श्रावक आंशिक रूप से ही पालन कर सकता है / यही कारण है कि साधुओं को महाव्रती और श्रावकों को अणुव्रती कहते हैं / __ रत्नत्रयी- जिस तरह हिन्दू धर्म श्रवण, मनन और निदिध्यासन को मोक्ष-प्राप्ति का साधन मानते है, उसी तरह जैन धर्म भी सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चरित्र नामक रत्नत्रयी का प्रतिपादन करते है। दर्शन का तात्पर्य है जैन धर्मशास्त्रों एवं धर्माचार्यों तथा उनके उपदेशों में श्रद्धा / श्रद्धा ज्ञान को सार्थक करती है। बिना श्रद्धा ज्ञान का मूल्य नहीं और न ही श्रद्धा के बिना ज्ञान की प्राप्ति ही होती है। सद्विचार की दृढ़ता या स्थिरता ही श्रद्धा है। श्रद्धा में विवेक है, अन्धविश्वास नहीं / सम्यक् दृष्टि वाले मनुष्य की भावना नाटक के पात्र के समान हो जाती है। जो सुख-दुःख उठाते हुए भी अपने को सुखी या दुःखी नहीं समझता / उसे इहलोक-भय, परलोक-भय, वेदना-भय, मरण-भय, चोरी का भय, अपमान का भय और आकस्मिक भय नहीं होता / सम्यक्त्व प्राप्त होने पर उसकी भावना 'वसुधैव कुटुम्बकम्' जैसी हो जाती है। बन्ध का मूल कारण अज्ञान जनित कषाय है। अतः ज्ञान से ही बन्ध का निवारण संभव है। शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित समस्त सिद्धान्तों एवं तत्त्वों का यथार्थ एवं गंभीर ज्ञान प्राप्त करना भी श्रद्धा के समान आवश्यक एवं उपादेय है। श्रवण किये गये सिद्धान्तों पर मनन कर सही ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। सही ज्ञान वह है, जो मुक्तिदायक है / ज्ञान के दो प्रकार हैं - श्रुतज्ञान और केवलज्ञान / केवलज्ञान, श्रुतज्ञान की पराकाष्ठा है / इसके अन्तर्गत प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग आते हैं। प्रथमानुयोग द्वारा जीवन के पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। करणानुयोग द्वारा समय का परिवर्तन, स्थानों का विभाग और जीवन की चारों अवस्थाओं का ज्ञान होता है / चरणानुयोग से कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान होता है / द्रव्यानुयोग द्वारा तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है / सम्यग् दर्शन और सम्यग् ज्ञान की चरितार्थता सम्यग् चरित्र में होती है। जिस ज्ञान को चरित्रनिर्माण में उपयोग नहीं, वह सम्यग् ज्ञान नहीं कहा जा सकता / ज्ञान के सिद्धान्तों को यदि जीवन में नहीं उतारा जाए, व्यवहार में यदि उनका आचरण नहीं किया जाए तो वे व्यर्थ हैं / सम्यक् चरित्र सर्वोत्तम और सर्वाधिक महत्त्व का है, क्योंकि इस से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। धर्मविधि- सम्यग् दृष्टि, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चरित्र की प्राप्ति के लिये जैन धर्म में कुछ विधि-निषेधों का प्रतिपादन किया गया है, जिन्हें धर्मविधि और चरित्राचार कहते हैं / हम पहले धर्मविधि और बाद में चरित्राचार का वर्णन करेंगे / धर्मविधि के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के व्रतों का समावेश होता है / जीवन को संयमित करने वाली मर्यादाएँ नियम कहलाती हैं और सार्वभौम नियम व्रत कहे जाते हैं। 1. महाव्रत - समस्त प्रकार के व्रतों में महाव्रत सर्वश्रेष्ठ हैं / ये पाँच हैं - (1) अहिंसा -
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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