________________ 14 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा 6. प्रमत्त संयत - इसमें आत्मसंयम होता तो पूर्ण है, परन्तु कदाचित् च्युत होने की संभावना रहती है। 7. अप्रमत्त संयत - इसमें अच्युतपूर्ण आत्मसंयम होता है / 8. निवृत्ति बादर संपराय - अपूर्वकरण का आचरण करने वाला वह जीव, जिसमें वासना स्थूल रूप में रहती है। 9. अनिवृत्ति बादर संपराय - अनिवृत्तिकरण का आचरण करने वाला, जिसमें अपूर्वभावों ___ का अनुभव होता है तथा वासना भी रहती है / 10. सूक्ष्मसंपराय - इस स्थिति में वासना सूक्ष्म रूप से रहती है / 11. उपशांतमोह - इसमें वासना का दमन मात्र होता है और सर्वज्ञता प्राप्त नहीं होती है / 12. क्षीणमोह - इसमे वासना का क्षय हो जाता है, पर सर्वज्ञता प्राप्त नहीं होती। 13. सयोगी केवली - इसमें जीव सर्वज्ञ हो जाता है, पर कर्मरत रहता है। 14. अयोगी केवली - इसमें जीव सर्वज्ञ हो जाता है और कर्मविरत भी हो जाता है / ये गुणस्थान इस तथ्य पर आधारित हैं कि जीव पर कर्मों के आवरण की गहनता अनेक-स्तरीय है। अतः जीव के स्वाभाविक गुणों के हास एवं विकास की दशाएँ भी अनेक हैं / मोटे तौर पर इन्हें तीन प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है - 1. मिथ्यादर्शी - बहिरात्मा, 2. सम्यग्दर्शी - अन्तरात्मा, 3. सर्वदर्शी - परमात्मा / चौदह गुणस्थानों में से प्रथम तीन भूमिका तक का जीव बहिरात्मा कहलाता है, चौथी से बारहवीं तक का अन्तरात्मा और शेष दो भूमिका वाला परमात्मा कहलाता है / वैसे तो जीव का उत्थान-प्रवाह विभक्त नहीं किया जा सकता, तथापि सुगमता हेतु से 14 प्रकार के गुणस्थानों का विभाजन किया गया है। विश्व के समस्त जीवों का, उनकी चाहे कोई भी अवस्था क्यों न हो, अन्तर्भाव किसी न किसी गुणस्थान में अवश्य हो जाता है। __ आचार धर्म- ऊपर जैन धर्म के तत्त्वज्ञान पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया है। अब हम उसके आचार पक्ष का विचार करेंगे / मुक्ति के मार्ग पर चलने के लिये जीव की सांसारिक स्थिति को दृष्टि में रखते हुए दो पृथक् मार्गों का विधान है - अगार धर्म और अनगार धर्म / गृहस्थ-जीवन व्यतीत करते हुए मुक्ति मार्ग की साधना करना अगार धर्म है, जिसे श्रावक धर्म भी कहते हैं / जो विशिष्ट साधक गृहत्याग कर साधु-जीवन अंगीकार करते हैं, उनका आचार अनगार धर्म कहलाता है। यद्यपि श्रावक और साधु मुक्ति की साधना के लिये जिन व्रतों का पालन करते हैं, वे मूलतः एक ही हैं, परन्तु दोनों की