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________________ ' 12 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा चार प्रकार के बन्ध का वर्गीकरण किया गया है - प्रकृति-बन्ध, स्थिति-बन्ध, अनुभाग-बन्ध और प्रदेश-बन्ध / प्रकृति-बन्ध के अन्तर्गत आठ प्रकार के कर्मों द्वारा निसृत आवरण आता है / जीव के समस्त प्रदेशों में कर्म-अणुओं का प्रवेश प्रदेश-बन्ध कहा जाता है / कर्म-अणुओं का जीव में अनवरत आच्छादित करना बन्ध कहा जाता है। कर्म-अणुओं में प्रभावोत्पादक क्षमता, जिससे जीव को सुख दुःखादि के अनुभव प्राप्त होते हैं, अनुभाग-बन्ध कहा जाता है / जीव में, जैसा ऊपर कहा गया है, चार प्रकार के अनन्त होते हैं / इन्द्रिय विषय इन अनन्तों के उत्पादक नहीं वरन् अवच्छेक हैं। ये अनन्त जीव में नैसर्गिक रूप से निहित हैं, पर विषय-भोग इन्हें आवृत कर देता है। अजीव से संसर्ग जीव को विषयोन्मुखी बना देता है, क्योंकि अजीव इन्द्रियमय है और इन्द्रियाँ विषयोन्मुखी हैं / अतः जितना अधिक घना विषयों के प्रति राग होगा, उतना अधिक घना बन्ध होगा और आनन्त्य से उतनी ही दूरी होगी। उसके विपरीत जितना अधिक अजीव-जनित आवरण का विनाश होगा, उतना अधिक आनन्त्य से सामीप्य होगा / संवर कर्म के क्षय से बन्धन का विच्छेद होता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है / इसके लिये दो क्रमिक उपाय हैं - संवर और निर्जरा / कर्म के क्षय का तात्पर्य है, आस्रव के प्रवाह को रोकना और जिससे आस्रव रुकता है, उसे संवर कहते हैं। संवर-से नये कर्मों का प्रवाह रुक जाता है। संवर के अन्तर्गत जैन धर्म में अनेक विधि-निषेधों का विधान है, जिनकी चर्चा हम आगे जैन आचार धर्म के अन्तर्गत चरित्राचार में करेंगे। आस्रव एवं बन्ध की तरह संवर के भी दो प्रकार हैं - भावसंवर और द्रव्यसंवर / उस मानसिक वृत्ति का निरोध जो कर्मप्रवेश को संभव बनाती है, भावसंवर कहलाता है / कर्म के अणुओं के प्रवेश का रुकाव द्रव्यसंवर कहलाता है। संवर मोक्ष की प्राप्ति का सबसे महत्वपूर्ण साधन है / निर्जरा संवर से नये कर्मों का प्रवाह रुक जाता है, परन्तु संचित कर्म नष्ट नहीं होते / इसके लिये निर्जरा का विधान है। अकेला संवर मुक्ति के लिये पर्याप्त नहीं / नौका में छिद्रों द्वारा पानी आना आस्रव है। छिद्र बन्द करके पानी रोकना संवर है / जो पानी अन्दर आ चुका है - उसे उलीचना ही निर्जरा है / निर्जरा का अर्थ है - जर्जरित कर देना, झाड़ देना / निर्जरा के दो प्रकार हैं - औपक्रमिक या अविपाक तथा अनौपक्रमिक या सविपाक / कर्म का परिपाक होने के पहले ही तप आदि के द्वारा या विशिष्ट साधना से बलात् कर्मों को उदय में लाकर झाड़ देना औपक्रमिक निर्जरा है। अपनी नियत अवधि पूर्ण होने पर स्वतः कर्मों का उदय में आना और फल देकर हट जाना अनौपक्रमिक निर्जरा है। यह प्रत्येक प्राणी को प्रतिक्षण होती रहती है। तपस्या द्वारा संचित कर्मों को क्षीण करना ही मुख्य निर्जरा है / परन्तु यह साधना सरल नहीं
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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